Book Title: He Prabho Terapanth
Author(s): Sohanraj Kothari
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 157
________________ -१४४ हे प्रभो ! तेरापंथ न होने के कारण चर्चाओं में जय-पराजय की भावना बनी रहती थी। आचार्यकाल के प्रथम ग्यारह वर्षों में आचार्यश्री ने अपने ज्ञान के धरातल को ठोस किया। इसमें आयुर्वेदाचार्य संस्कृतज्ञ आशु-कविरत्न पण्डित रघुनन्दनजी की सेवाएं उल्लेखनीय रहीं। धर्मसंघ की अन्तरंग सम्भाल आचार्यश्री को ही करनी होती । पर जनता को संभालने का काम सीमित बन गया। इस काम में आपको मन्त्री मुनिश्री मगनलालजी का अत्यधिक सहयोग मिला। उपलब्धियों का काल तीस वर्ष की अवस्था के बाद आचार्यश्री के जीवन का चौथा अभिक्रम प्रारम्भ हुआ । सन् १९४८ से १९५६ तक का काल उथल-पुथल व नयी संभावनाओं का काल था । इसी समय देश आजाद हुआ और आजादी के साथ धर्मसंघ की स्थितिपालकता के सन्दर्भ में विरोध के स्वर उठने लगे। इस स्थिति से प्रेरणा पाकर आपने प्रारम्भ में रूढ़ि उन्मूलन और अस्पृश्यता निवारण के दो काम हाथ में लिए, जो जैन संस्कृति के अनुकूल थे। उस समय तत्कालीन धारणाओं में माधु समाज का सामाजिक कार्यों में हस्तक्षेप उचित नहीं माना जाता था, इसलिए परम्परावादी लोगों ने विरोध किया। आचार्यश्री युग की मांग को पहचान रहे थे और पुरातन पीढी के दृष्टिकोण से भी अवगत थे। विरोध के भय से काम छोड़ने की अपेक्षा उस क्षेत्र में अधिक शक्ति-नियोजन का काम शुरू किया गया। उस काम के लिए आपने कुछ नये कार्यकर्ताओं को जोड़ा और समाज के वैचारिक धरातल को युगबोध के अनुरूप ढालने के लिए नये साहित्य का निर्माण करवाया। इसी सन्दर्भ में २ मार्च १६४६ को सरदारशहर में आचार्यश्री ने 'अणुव्रत आन्दोलन' का सूत्र-पात किया । अनेक आलोचनाओं और विरोधों के उपरान्त अणुव्रत का कार्यक्रम सबने सराहा। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद, उपराष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन्, प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू प्रभति अनेक शीर्षस्थ लोगों ने इसका समर्थन किया। जाति, प्रान्त, वर्ग और धर्म की संकीर्णता से मुक्त नैतिक आचारसंहिता के रूप में अणुवत आन्दोलन ने आचार्यश्री तुलसी को अत्यन्त लोकप्रिय व त्राणदाता बना दिया और वे अणुव्रत अनुशास्ता के रूप में सर्वाधिक जाने-पहचाने बन गए । अणुव्रत कार्य को गति देने के लिए आचार्यश्री ने अपने विहार क्षेत्र का विस्तार किया। १२-४-१९४६ को रतनगढ से अणुव्रत यात्राओं का प्रारम्भ हुआ । पहली बार जयपुर, दिल्ली आदि बड़े शहरों में अणुव्रत की गूंज हुई । उसके बाद तो बम्बई, पंजाब, कलकत्ता, दक्षिणी भारत आदि प्रलंब यात्राओं का सिलसिलासा चल पड़ा, जो अब तक अविच्छिन्न रूप से चल रहा है । पंजाब से कन्याकुमारी तक विशाल धर्म संघ के साथ लगभग सवा लाख किलोमीटर की पदयात्रा कर, .आचार्यश्री ने इस क्षेत्र में भी कीर्तिमान स्थापित कर दिया। आचार्यश्री के शासन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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