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७. आचार्य भिक्षु की मान्यताएं व मर्यादाएं : आज के में उनकी प्रासंगिकता व सार्थकता
युग
तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्यश्री भिक्षु एक अलौकिक एवं विलक्षण पुरुष थे । उनकी आत्म चेतना पूर्णतः जाग्रत थी और उसकी निर्मलता में उन्होंने शाश्वत सत्य का समग्रता से साक्षात किया एवं उसकी प्रशस्त व्याख्या की । स्वयं को निरंतर उत्कट त्याग और तपस्या की आंच में तपाकर, उन्होंने विराट चैतन्य का आलोक प्राप्त किया । शाश्वत सत्य को जाना, परखा और अनुभव किया और जब वे पूर्णत: अभय और असंग बन गए तो उन्होंने उस सत्य को प्रखरता से अभिव्यक्ति दी । खोई हुई जीवन दृष्टि और छोड़ा हुआ जीवन-पथ जन-जन को दिखाने के लिए वे प्रकाश स्तम्भ बने । उन्हें धर्म का वही स्वरूप इष्ट था जो वीतराग देव द्वारा प्रणीत था, जिसका आत्म शुद्धि ही साध्य था और जो आप्त वाणी में अहिंसा, संयम व तप से परिबेष्टित था । वे आत्म धर्म के महान् उद्बोधक बने और उनकी दृष्टि में सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप की साधना से आत्म सिद्धि प्राप्त करने के सिवाय, अन्य किसी प्रकार की भौतिक या लौकिक सिद्धि की उपलब्धि के लिए की जाने वाली साधना, धर्म की कोटि में नहीं आ सकती । उन्होंने साधु की शीलचर्या एवं आचार संहिता को आत्म-शुद्धि एवं आत्म-सिद्धि की तुला पर रखकर परीक्षित किया और जहां वह संहिता इस तुला पर खरी न उतर सकी, उसका पूर्णतः निषेध किया । उनका सारा जीवन 'आत्म धर्म' एवं 'वीतराग - साधना' के परिपार्श्व में खपता रहा। उसी में उनकी जीवन ऊर्जा प्रकाशित हुई एवं उस ऊर्जा से जन-मानस आत्म साधना के पथ पर आकृष्ट हुआ । उनके द्वारा प्रस्थापित शाश्वत सत्य के स्वर आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने वे दो शताब्दी पूर्वं थे । भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद उनके उत्तरवर्ती कुछ अतीन्द्रिय ज्ञानी आचार्यों को छोड़कर आत्मधर्म एवं शुद्ध साध्वाचार की प्रखरता से, जितनी सशक्त अभिव्यक्ति आचार्य भिक्षु ने दी, उतनी संभवतः शताब्दियों में अन्य किसी आचार्य ने इतने व्यापक रूप से नहीं दी । आचार्यश्री भिक्षु, तात्कालिक साधु
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