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१४२ हे प्रभो! तेरापंथ
के समय खड़े होकर व्यवसाय के लिए कहीं जाने तथा विवाह करने का त्याग कर दिया । एक तीव्र ऊहापोह के साथ वह सबके सामने उभर आया । बाधाएं दूर हुई। पौष वदी ५ (५-१२-२५) को सूर्योदय के समय बालक तुलसी अपनी सहोदरी भगिनी लाडांजी के साथ कालूगणि के पास दीक्षित हो गया।
इससे पूर्व उसके ज्येष्ठ भ्राता चम्पालालजी साधु बन चुके थे। नया जीवन, नया परिवेश, नयी आकांक्षाएं और नया कार्य क्षेत्र । बालक तुलसी अपने जीवन का एक एकादशक पूर्ण कर मुनि तुलसी बन गया व नयी यात्रा प्रारम्भ हुई।
किशोर मुनि तुलसी के सामने उस समय एक ही लक्ष्य था, गुरुदेव द्वारा प्राप्त मार्गदर्शन के अनुसार अपने जीवन का निर्माण । इसके लिए उसने साधना की दष्टि से आचार निष्ठा व विनम्रता के क्षेत्र में विशेष गति करने का संकल्प किया। गुरु के प्रति तो वह समर्पित होकर ही आया था। पांच वर्ष तक निरन्तर जागरूक भाव से अध्ययन कर मुनि तुलसी ने अपने सहपाठी वरिष्ठ साधुओं को पीछे छोड़ दिया । श्री कालूगणि के मन का विश्वास प्रगाढ़ हुआ और उन्होंने सोलह वर्षीय मुनि तुलसी के संरक्षण में बाल साधुओं के अध्ययन का क्रम चालू रखा । अवस्था के साथ तेजस्विता का कोई सम्बन्ध नहीं है, इसे मुनि तुलसी ने सार्थक कर दिया। जो समय स्वयं उसके अपने निर्माण का था, उसने दूसरों को निर्माण करने का कार्य हाथ में लेकर सबको चौंका दिया। गुरु का विश्वास, अपना पुरुषार्थ, बाल मुनियों का समर्पण भाव, इस त्रिपुटी ने तेरापंथ धर्मसंघ में शिक्षा के नये आयाम खोल दिए । एक नेतृत्व, एक आचार, एक तत्त्व निरूपण की पद्धति, इन तीनों तत्त्वों से तेरापंथ धर्मसंध धर्मसंघों की लम्बी परम्परा में अपना वर्चस्व स्थापित कर ही चुका था। शैक्षणिक विकास के साथ वह युग धर्म का संवाहक धर्मसंघ बनने की प्रक्रिया से गुजरने लगा। मुनि तुलसी बाल साधुओं को पाठ्य-पुस्तकों के साथ जीवन की अन्य विद्याओं का भी प्रशिक्षण देने लगे । अन्य किसी प्रकार का संघीय दायित्व मुनि तुलसी पर नहीं था। पर वह संघ की हर गतिविधि का सूक्ष्मता से अध्ययन करता । शायद भावी का गुप्त शुभ संकेत अवचेतन मन को मिल चुका था इसलिए वह प्रशासनिक दृष्टि से भी सोचने लगा तथा यदा-कदा अपने चिंतन को श्री कालूगणि तक पहुंचाने लगा । अध्ययन कार्य में संलग्न होने पर भी मुनि तुलसी वैयक्तिक तथा अध्ययन से पूर्णतः प्रतिबद्ध थे। मुनि जीवन के ग्यारह वर्षों में बीस हजार पद्य प्रमाण ग्रन्थ कंठस्थ कर अपनी आशुनाही मेधा से सबको चमत्कृत किया। जैन आगम और उनके व्याख्या-ग्रन्थों के अध्ययन में कालूगणिजी की प्रेरणा अत्यधिक रही। यह युग भक्तिप्रधान युग था । साधु-साध्वियां अपनी शक्ति व चिन्तन को गुरु की दृष्टि के अनुरूप मोड़ लेते थे। मुनि तुलसी के प्रति श्री कालूगणि के सहज वात्सल्य भाव ने संघ के हर सदस्य को उसकी ओर आकृष्ट कर दिया । अवस्था में बड़े साधु मुनि तुलसी को विशेष सम्मान देते और वह मन ही
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