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११८ हे प्रभो ! तेरापंथ
तेजस्वी व्यक्तित्व के मानस में आपकी प्रखरता की स्थायी छाप जमा दी। माणकगणि के स्वर्गवास के बाद आलोयणा आदि के लिए दीक्षा स्थविर भीमजी स्वामी को स्वीकार किया गया। पाक्षिक क्षमायाचना के लिए परम्परा के अनुसार साध्वी प्रमुखा जेठांजी साध्वियों सहित वहां उनके पास पधारों, तो आपने उनको स्पष्ट कहा कि 'यह विधि आचार्य की उपस्थिति में ही हो सकती है । अतः आचार्य की नियुक्ति तक यह परम्परा स्थगित रहेगी। आचार्य के सिवाय अन्य किसी की सन्निधि में साधु-साध्वी एकत्रित नहीं हो सकते। उनकी बात सभी को ठीक लगी और महासती जेठोंजी जैसे आई वैसे ही लौट गई। वे श्रीमद् डालगणि, श्री भीमजी और साध्वी श्री जेठांजी के प्रति भी निरपेक्ष रहने तथा अपना स्वाभिमान कायम रखने का अप्रतिम साहस रखते थे।
आचार्य पद पर
संवत् १९६० में बीदासर में वहां के ठाकुर हुकमसिंहजी ने श्रीमद् डालगणि को एक संस्कृत श्लोक भेजकर अर्थ जानना चाहा पर कोई उसका अर्थ नहीं बता सका। इस घटना ने आपको संस्कृत का पुनराभ्यास करने की प्रेरणा दी। चूरू में श्री रायचन्दजी सुराणा के सहयोग से पण्डित घनश्यामदासजी से आपने संस्कृत 'पढ़ना शुरू किया । कट्टर ब्राह्मण और संस्कारगत जैन संस्कृति के विरोधी होने के उपरान्त भी पण्डितजी ने अपने आपके व्यक्तित्व से आकर्षित होकर अवैतनिक अध्ययन कराना प्रारम्भ किया। चूरू से विहार होने पर भी अध्ययन का क्रम चालू रहा, बीच-बीच में पण्डितजी का योग मिलता रहा । संवत् १९६६ में श्रीमद् डालगणि अस्वस्थ हो गए। संघ की भावना देखकर उन्होंने आचार्य नियुक्ति-पत्र लिखा पर उसे लिफाफे में बन्द कर गुप्त रखा, किसी साधु-साध्वी को आचार्य के बारे में आभास तक नहीं हो सका। श्रीमद् डालगणि का संवत् १६६६ भादव सुदि १२ को स्वर्गवास हो गया। नियुक्ति पत्र खोला गया तो उसमें आपका नाम 'पाकर सर्वत्र प्रसन्नता की लहर छा गई, आपके जय घोष से वातावरण गूंज उठा। मुनि मगनलालजी ने चद्दर ओढ़ाकर अभिषेक किया और वे उनके जीवन पर्यन्त स्वतः सिद्धहस्त मंत्री और निलिप्त परामर्शदाता बन गए। ___आचार्य बनने के बाद साध्वीश्री कानकुंवरजी के साथ मातुश्री छोगांजी ने बीकानेर चातुर्मास की सम्पन्नता पर सुजानगढ़ में आपके दर्शन किए, तब से दोनों आप के साथ रहने लगीं। श्रीमद् कालूगणि को, जो संघ सम्पदा विरासत में मिली, वह अनुपम थी, पर आपने उसमें विकास के नये आयामों का बीजारोपण किया। प्रथम मर्यादा-महोत्सव पर ही आपने अपने पास मात्र १६ साधु रखकर साधुओं के ७ तथा साध्वियों के ३ कुल १० नये सिंघाड़े बनाकर धर्म प्रचार को आगे बढ़ाया। ३७ वर्ष की आयु में संवत् १९७० के छापर प्रवास में आपने संस्कृत
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