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नवयुग का उदय व विकास ११६
का अध्ययन पुन: चालू किया तथा एकान्त में बैठ कर सिद्धान्त, चन्द्रिका के पाठ कंठस्थ किए। प्रौढ अवस्था और आचार्य के दायित्व के मध्य विद्याध्ययन के लिए उनकी कार्यशीलता और संकल्प अत्यन्त सहायक बने, संस्कृत विद्या के अध्ययन की व्यापक सम्भावना साकार बन गई। आपको एक स्वप्न आया कि उनकी आंखों के सामने सूखा वृक्ष लहलहा उठा है तथा फूलों से आकीर्ण होकर फलों से भरा पूरा हो गया है। स्वप्न का आपने फलितार्थ किया कि संघ में संस्कृत विद्या का सूखा वृक्ष पुष्पित पल्लवित और फलदायक बनकर शतशाखी बन जायेगा। फिर आपको एक स्वप्न आया कि गाय के सफेद बछड़े-बछड़ियां चारों तरफ फैल रही हैं जिसका फलितार्थ आपको लगा कि संघ में श्वेत वस्त्रधारी अनके बाल व तरुण साधुसाध्वियां होंगी। इतिहास साक्षी है कि उनके दोनों स्वप्न साकार बने।
“विकास युग का उदय
आप जागृत अवस्था में भी सदा संघ-विकास के स्वप्न लेते रहते थे। आप स्वयं अनेक साधुओं को सारस्वत और सिद्धान्त चन्द्रिका पढ़ाने लगे। मुनिश्री मगनलालजी व कई श्रावकों के प्रयास से यतिओं के भण्डारों से अनेक हस्तलिखित ग्रंथ प्राप्त हुए, जिसमें 'सारकौमुदी' की एक प्रति प्राप्त हुई। बाद में मुनि चंपालालजी को भादरा में रावतमलजी पारख के पास यतिवर विशालकीर्तिगणि द्वारा निर्मित 'शब्दानुशासन अष्टाध्यायी' को प्रति मिली, जिसे पाकर आचार्यप्रवर बहुत प्रसन्न हुए। श्रीमद् कालूगणि सौभाग्यशाली थे कि उन्हें समर्पित एवं गतिशील संघ मिला । आचार्यवर संवत् १९७४ में सरदारशहर चातुर्मास सम्पन्न कर चूरू पधारे, जहां यति रावतमलजी, जो संघ के प्रति अनुरागी थे, ने आपके समक्ष एक तरुण उद्भट संस्कृत विद्वान की चर्चा की। उस विद्वान को श्रीमद् कालूगणि का परिचय दिया। यतिजी के प्रयास से दोनों का मिलन हुआ, तरुण विद्वान पण्डित रघुनन्दनजी शर्मा थे । प्रथम मिलन में आचार्यवर ने जैनधर्म और तेरापंथ धर्मसंघ के बारे में फैली भ्रान्त धारणाओं का समुचित निराकरण किया। पण्डितजी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तेरापंथ धर्मसंघ की सेवा को ही अपनी नियतिमान लिया। वार्ता के आधार पर तत्काल साधु-चर्या पर संस्कृत में शतक की रचना कर आचार्यवर को भेंट दी। आचार्यवर उनकी ग्रहणशीलता, आशुकवित्व और विद्वत्ता से बहुत प्रभावितहुए और फिर दोनों व्यक्तित्व जीवन-पर्यन्त सात्विक स्नेह और श्रद्धा के सूत्र में बंध गए। तब से साधुओं का संस्कृत अध्ययन और सुगम हो गया । संवत् १९७८ में लाडनूं में जयचन्दलालजी बरमेचा के यहां 'हेम शब्दानुशासन' का प्रकाशित संस्करण उपलब्ध हो गया, जो माँग सम्पूर्ण व्याकरण था। उसके प्रथम अध्येता सर्वश्री मुनि भीमराजजी, सोहनलालजी (चूरू), कानमल जी व नथमलजी (बागोर) बने । यह ग्रंथ कठोर तथा क्लिष्ट होने से आचार्यवर के मन में सरल
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