Book Title: He Prabho Terapanth
Author(s): Sohanraj Kothari
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 134
________________ नवयुग का उदय व विकास १२१ चांदमलजी व श्रावक सुमेरमलजी बोथरा इस प्रकार के निम्न स्तरीय व्यवहार से क्षब्ध हो उठे पर आपने उन्हें उत्तेजित नहीं होने दिया। एक बार आचार्यवर स्वयं मिट्टी के ढ़हों की खोखाल में शौचार्थ पधारे कि एक अज्ञात क्रूर व्यक्ति हाथ में पिस्तौल तान कर उनके सामने अप्रत्याशित रूप से खड़ा हो गया. पर ज्योंहि उसने आचार्यवर की तेजोमय मुद्रा देखी कि उसके हाथ से पितौल गिर पड़ा और उसने आपके चरणों में पड़कर क्षमा याचना की और बताया कि वह किसी के बहकाने से हत्या करने आया था, पर आचार्यवर के पवित्र आभावलय को देखकर यह जघन्य पाप करने का दुस्साहस न कर सका। इतने में अन्य साधु भी वहां पहुंच गए पर गृहस्थों से किसी ने इसकी चर्चा तक नहीं की। षड्यन्त्रकारियों को पता लगते ही उन्हें सांप संघ गया और भण्डाफोड़ हो जाने के डर से उन्होंने विरोध और उग्र बना दिया।' अन्त में ऐसे विषाक्त वातावरण की सूचना बीकानेर राज्य के युवराज तथा गृहमन्त्री शार्दलसिंहजी को मिली । महाराजा गंगासिंहजी विदेश में थे। अतः उनके आने के पूर्व पारस्परिक वैमनस्य मिटाने के लिए उन्होंने मूर्तिपूजक, स्थानकवासी और तेरापथी समाज के प्रमुख व्यक्तियों (कनीरामजी बांठिया, लिखमीचन्दजी डागा, पूनमचन्दजी कोठारी और सुमेरमलजी बोथरा) के बीच लिखित समझौता करवाया कि वे तेरापंथियों के विरुद्ध व्यक्तिगत द्वेष या आक्रमण नहीं करेंगे, न ऐसी सामग्री प्रकाशित करेंगे। इस समझौते से उग्रपंथी लोग शान्त न हो सके और उन्होंने 'पूज्य कालूरामजी की ढोल में पोल लीला' एक भद्दी व झूठी अश्लोल पुस्तक छपाकर समझोता भग कर दिया। विरोध पर लगभग एक लाख चालीस हजार रुपया उस जमान में खर्च किया गया, जिसकी जानकारी खर्चे का चिट्ठा, कलकत्ता में गतव्य पर न पहुंचकर, अन्यत्र पहुंच जाने से हुई। उस विरोध में एक उच्च राज्याधिकारी भी सम्मिलित था। बीकानेर महाराजा गंगासिंहजी को इन सब बातो का पता लगने पर उन्होंन राजपत्र में दिनांक ३१-१०-२३ में आज्ञा प्रसारित कर सारी प्रकाशित सामग्री जब्त की, कनीरामजी बांठिया, लिखमीचन्दजी डागा, मंगलचंदजी माल से हजार-हजार के मुचलके लेकर लिखित ' इकरारनामा शांति बनाए रखने का लिया। मुनि मगनसागर (जयपुर) व आनन्दराज सुराणा को बीकानेर से निष्कासित किया तथा जनता को ऐसे प्रकाशनों से अलग रहने का आग्रह किया गया । इस आदेश से विद्वेष का गढ़ ढह गया । किसी जैन साधु को लिखित राज्याज्ञा से निष्कासन का पहला अवसर था। श्रीमद् कालगणि संवत् १९८३ व ८७ में फिर गंगाशहर चातुर्मास कर बीकानेर पधारे पर तब तक विरोध की आंच मंद पड़ चुकी थी, बुझ गई थी। । संवत् १९६२ में आचार्यप्रवर ने मालवा की यात्रा की। जावरा में कुछ १. तेरापंथ का इतिहास : मुनि बुद्धमलजी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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