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११६ हे प्रभो ! तेरापंथ
संवत् १९४४ में बीदासर चातुर्मास में श्रीमद् मघवागणि के समक्ष फिर तीनों ने दीक्षा लेने की भावना रखी। संवत् १९४४ के आसोज सुद ३ को बीदासर में जीतमलजी दूगड़ के नोहरे में बालक कालू (भावी आचार्य) माता छोगांजी तथा कानकुंवरजी को भव्य समारोह में आचार्य प्रवर ने दीक्षा दी। . मुनि काल में विनय और विवेक का मणिकांचन योग था । उनकी बुद्धि तेज थी, वे चरित्र की अनुपालना में बहुत जागरूक थे । श्रीमद् मघवागणि संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान थे। उन्होंने मुनि कालू की विशेषताओं से आकर्षित होकर उन्हें आगम ग्रन्थों का अध्ययन कराया, अपना लिपि कौशल सिखाया। सारस्वत का पंचसंधि प्रकरण कंठस्थ कराया, पर आपको दीक्षित हुए पांच ही वर्ष हुए कि मघवा गणि का स्वर्गवास हो गया। मुनि कालू श्रीमघवागणि की प्रतिकृति ही थे, व उनका ही भाव चिंतन, रुचि, जीवन और क्रम आप में था। आपके लिए श्री मघवागणि आदर्श थे। उनका प्रभाव सदा आपके मानस-पटल पर अमिट रहा । आचार्य बनने के बाद भी जब वे श्री मघवागणि का स्मरण करते तो उनकी आंखें प्रेमाश्रुपूरित हो जाती। आपने श्री मघवागणि के प्रति समर्पित होकर ही उनका विश्वास प्राप्त किया था, आप सदा प्रति-लेखन और प्रतिक्रमण आचार्यवर के पास ही करते। एक बार भयकर सर्दी में मुनि काल ने प्रतिलेखन के लिए ओढ़ने के सारे वस्त्र उतार दिए, तो उनका शरीर कांपने लगा। श्रीमद् मघवागणि ने तत्काल अपनी पछेवड़ी उन्हें ओढ़ा दी। संघ परम्परा में यह अपूर्व घटना थी और संभवतः शुभ-सूचक भी। मातु श्री छोगांजी भी आपके जीवन-निर्माण पर पूरा ध्यान रखती थीं। मुनि मगनलालजी तो आपके दीक्षित होने के बाद से अभिन्न सखा और पथ-प्रदर्शक मित्र बन गए। जीवन भर यह अभिन्नता प्रगाढ़ बनी रही। अपनी छोटी अवस्था में ही मुनि कालू श्री मघवागणि के लिए सहारा बन गए। उनके आदेशानुसार व्याख्यान देने लग गए, जिसके लिए लय और अर्थ स्वयं आचार्यवर बताते ।
निस्पृहता
श्रीमद् माणकगणि के शासन काल में वे गण और गणपति की गरिमा के अनुकूल व्यवहार करने में सदा सजग रहे । माणकगणि के यकायक बिना भावी व्यवस्था किए देहावसान हो जाने से संघ की नौका समस्या के तूफानी समुद्र में पड़ गई । सारे संघ पर गंभीर दायित्व आ गया। मुनिश्री मगन तथा श्री कालू दायित्व का भली-भांति निर्वाह कर रहे थे। एक बार एक मुनि ने अपने लिए समर्थन जुटाने के प्रयास में आपसे पूछा, 'कालूजी, अपना आचार्य कौन बनेगा?' आपने दो टूक उत्तर देते हुए कहा, 'मुझे नहीं मालूम, पर तुम और मैं दो तो आचार्य नहीं बनेंगे।' एक दिन मुनि कन्हैयालालजी ने आचार्य के अभाव की व्यथा को प्रकट करते हुए श्री मगन मुनि को कहा, 'मगनजी, धर्मसंघ की सारसंभार अभी आपके हाथ में है,
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