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सप्तमाचार्य श्रीमद् डालगणि ११३
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'शासन रो सेवग सजग, चेतस्वी मुनि चौथ, कालू तुलसी सेव में प्रतिपल ओत-प्रोत । कुणसी वा गण री कला, जिनमें दखलनजास, कालू स्वमुख प्रशंसियो, खास जास आयास ॥'
युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी ने आपको 'शासन स्तंभ' उपाधि से - उपमित किया ।
आप द्वारा दीक्षित मुनि सक्तमलजी व रंगलालजी वर्षों तक संघ की सेवा में रहे पर सक्तमलजी ने वृद्धावस्था में भारी दोष सेवन किया व गण से बहिष्कृत किए गए व रंगलालजी को नवीन परिवर्तनों में सैद्धान्तिक शिथिलता का भ्रम हो गया । इसी ऊहापोह के कारण वे गण से अलग हो गए। श्री रंगलालजी आगमों के गहन अध्येता, आवार विचार में जागरूक, पाप भीरु, चर्चावादी विनम्र श्रद्धावान थे ।
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