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तृतीय आचार्य श्रीमद् ऋषिराय ( रायचंदजी ) ५३
उदयपुर में युवाचार्यश्री जीतमलजी के हाथों बड़े ठाट-बाट से हुई। आपकी दीक्षा विशेष शुभ और मांगलिक मानी जाती है । आपको उसी वर्ष आचार्यप्रवर ने अग्रगण्य बना दिया । संवत् १९१० से जीवन पर्यन्त आप श्रीमद् जयाचार्य के साथ ही रहीं । उसी वर्ष जयाचार्य ने साध्वीप्रमुखा का पद निर्मित कर आपको उस पद पर नियुक्त किया, साध्वियों की व्यवस्था की जिम्मेदारी सौंपी। संवत् १६०८ में श्रीमद् जयाचार्य ने संघ के साधु-साध्वियों के पास प्राप्त पुस्तकों का संघीकरण किया । संवत् १९१४ में साध्वियों के सिंघाड़े समर्पित हुए । संवत् १९२६ में संघ की सारी साध्वियों को अलग-अलग सुविधाजनक दलों में बांटा । इन सब कार्यों में सरदार सती का बहुत बड़ा सहयोग रहा। पहले किसी दल में अधिक तो किसी में बिलकुल कम साध्वियां रह जातीं । जो जिसे दीक्षा देती या प्रेरणा देती, वही उस साध्वी को अपने पास रख लेती। इस परंपरा में अपेक्षित परिवर्तन कर दिया गया । इस प्रकार कई नये दल साध्वियों के बन गए । प्रचार की सुविधा हो गई। आप प्रतिदिन सायंकाल साध्वियों व श्रावक-श्राविकाओं को आत्महित की शिक्षाएं देती रहतीं। उनमें संघ - निष्ठा व विनय-निष्ठा के गहरे संस्कार भरती रहतीं । साधु-साध्विओं की सेवा में आप सदा उदार बनकर कार्य करतीं । संवत् १९२७ में पौष शुक्ला ८ को श्रीमद् जयाचार्य के सान्निध्य में बीदासर में आपका अनशन - सहित स्वर्गवास हुआ । महासती सरदारोंजी को श्रीमद् जयाचार्य ने प्रतिबोध दिया, ज्ञानार्जन करवाया, मार्गदर्शन दिया, दीक्षा दी, सा०वीप्रमुखा बनाया। पंडित मरण में सहयोग दिया। वे जो कुछ थीं, जयाचार्य की ही कृति थीं । उन्होंने अपना सब कुछ संघ के लिए न्यौछावर कर दिया । साध्वियों के विकेन्द्रीकरण, पुस्तकों व उपकरणों के संघीकरण में श्रीमद् जयाचार्य के साथ उनका नाम भी इतिहास में अविस्मरणीय रहेगा । ६. महासती नवलोंजी
आपका जन्म संवत् १८८५ में मारवाड़ में 'रामसिंहजी का गुड़ा' ग्राम में कुशालचन्दजी गोलेच्छा के घर हुआ। आपकी माता का नाम चन्दना देवी था । आपका विवाह पाली के अनोपचन्दजी बाफणा के साथ हुआ, पर संवत् १९०२ में आपको पति वियोग हो गया । संवत् १९०४ में आपने चैत्र शुक्ला ३ को आचार्यश्री
रायचन्दजी के पास दीक्षा ली । आपने सरदार सती की तरह स्वयं ही केश- लुंचन किया। आप अपने महाव्रत व नियम पालन में अत्यन्त सजग, संघ के प्रति निष्ठावान, शास्त्रों की गम्भीर अध्येता व मधुर व्याख्यानी थीं । संवत् १६०७ में आप अग्रगण्य बन गईं । संवत् १९१४ में आपने सर्वप्रथम अपना सिंघाड़ा श्रीमद् याचार्य को समर्पित किया। फिर तेरह वर्ष तक आप श्रीमद् जयाचार्य के साथ रहीं । १९२८ में उन्हें पुनः अग्रगण्य बना दिया गया। उन्होंने तीन साध्विओं को
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