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हे प्रभो ! तेरापंथ
लगता है कि यदि हमारी 'खाओ पीओ और मोज करो' की मान्यता सही निकली तो आपकी सारी कष्टदायक साधना व्यर्थ व निष्फल हो जायेगी ।' श्रीमद् डालगणि ने उसी विनोद भावना से प्रत्युत्तर देते हुए कहा, 'सिंघीजी, आप ठीक कहते हैं, पर यदि हमारी पुनर्जन्म व कर्मों के फल की मान्यता सही निकल गई तो आपका क्या होगा ? हमारी साधना व्यर्थ जाने में हानि तो है ही नहीं ।' सिंघीजी स्पष्टवक्ता थे । उन्होंने कहा, 'महाराज ! आपकी मान्यता सही हुई, तो हमारे सिर पर इतने जूते पड़ेंगे कि धरती भी झेल नहीं सकेगी ।' आप जब देवगढ़ पधारे तो पुर, भीलवाड़ा आदि क्षेत्रों के ५०० व्यक्तियों ने आकर उनसे क्षेत्र स्पर्शना की जोरदार अर्ज की । आपकी अस्वस्थता, थली की ओर लंबा विहार, गर्मी का मौसम, इन सारी स्थितियों में उन क्षेत्रों को स्पर्श करना भारी कष्टदायक होता पर भक्ति भरी भावना से आप द्रवित हो उठे तथा उन क्षेत्रों का स्पर्श किया । इस तरह आप कठोरता व कोमलता के अद्भुत संगम थे । आप पर वज्र की तरह कठोर तथा कुसुम की तरह कोमल वाली कहावत चरितार्थ होती थी ।
धर्म-प्रचार-प्रसार
संवत् १९६० का चातुर्मास आपने सुजानगढ़ फरमाया तथा चातुर्मास हेतु आसाढ़ वदि १ को ही पधार गए। उन दिन 'ज्वालामुखी' योग था । श्रावकों ने योग बदलने के लिए आपको गांव बाहर पधार कर पुनः प्रवेश का निवेदन किया, पर आप तो महान् आत्मविश्वास के धनी थे । वह मुहूर्त आदि में विश्वास ही नहीं करते थे । आपने फरमाया 'शुभ मुहूर्त के लिए सुविधाजनक स्थान को छोड़कर पहले अन्यत्र जाने का कष्ट करूं तब अच्छा मुहूर्त क्या काम आएगा ? वे वहीं रहे व यह चातुर्मास सभी दृष्टियों से बड़ा आह्लादकारी रहा । संवत् १६६० का मर्यादा महोत्सव बीदासर में सम्पन्न कर श्रीचंद जी गधैया के युवा पुत्र उदयचंदजी के दुःखद अवसान का समाचार जानकर आप फागुण वदि ४ को सरदारशहर पधारे । गधेयाजी को अध्यात्म लाभ दिया । संवत् १६६१ का चातुर्मास आपने चुरू किया, जहां रायचंदजी सुराणा के मित्र पण्डित घनश्यामदासजी ने संतों को संस्कृत पढ़ाने की भावना व्यक्त की। मुनि कालूरामजी ( छापर ) ने व्याकरण पढ़ना प्रारम्भ किया । संवत् १९६२ में सरदारशहर मर्यादा महोत्सव के बाद आप राजलदेसर पधारे। संयोग से उसी समय सरदारशहर के सुप्रसिद्ध सेठ सम्पतमलजी दूगड़ के पुत्र सुमेरमलजी की बारात राजलदेसर के जैसराजजी बैद के पुत्र जयचंदलालजी के यहां आई हुई थी। बारात में दोनों पक्ष संपन्नशाली होने से १५०० बाराती, एक हथिनी, पांच सौ पच्चीस ऊंट, अस्सी घोड़े, अस्सी बैलगाडियां और चार बघियां थीं । विवाह के अवसर पर १८०० सेवकों को प्रत्येक को, नौ-नौ रु० दान में दिए गए। कस्बे में प्रतिघर मिठाई का एक-एक थाल व पगड़ी बांटी गई। जैसराजजी
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