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सप्तमाचार्य श्रीमद् डालगणि १०६
आपके क्रमिक दौर्बल्य को देखकर चतुर्विध संघ में चिन्ता छा गई। सरदारशहर श्री कालूरामजी जम्मड़ ने दर्शन कर आग्रहपूर्वक आपको भावी व्यवस्था करने का निवेदन किया पर आपने 'देखा जाएगा' कहकर टाल दिया तो उन्होंने तीसरी अधिक स्पष्टता से निवेदन करते कहा, 'यह काम तो आपको ही करना है, चाहे अभी करें या बाद में। किसी को दीक्षित कर आचार्य के योग्य बना पाएं इतना समय अब नहीं है, इन्हीं साधुओं में से चुनाव करना है तो फिर विलम्ब क्यों ? बारह वर्ष पहले संघ की परीक्षा हो चुकी है, ऐसा अवसर फिर न आए, यही हमारी चिता है ।' उसके बाद श्री मगनलालजी स्वामी व साध्वीप्रमुखा जेठोंजी ने भी निवेदन किया । प्रथम श्रावण वदी प्रतिपदा थी । श्रीमद् डालगणि ने उसी समय सुजानगढ़ के श्रावक शिरोमणि श्री रूपचंदजी चेठिया को याद कर उनके दर्शन करने पर उनसे परामर्श किया। फिर संतों को स्याही, पत्र व कलम लाने को कहा और एकान्त में बैठकर युवाचार्य-पत्र लिखा तथा उसे लिफाफे में बंद कर अपने पुठे में रख दिया। उसके बाद सायंकाल गुरुकुल-वास के सब संतों को बुलाकर कहा, 'मैंने आप सबको चिंता से मुक्त कर दिया है, आप में से किसी एक का नाम युवाचार्य - पत्र में लिख दिया है, वह बंद लिफाफा पुठे में डाल दिया है । नाम प्रकट करना मैं नहीं चाहता।' इसके बाद गुरु शिष्य व संघ के सदस्यों के आपसी व्यवहार के बारे में आपने गहरी शिक्षाएं फरमायीं। बाद में भी समय-समय पर आप शिक्षाएं देते रहे । पर आपने चुनाव को रहस्यमय बनाए रखा। जिसे चुना गया, उसे भी अपनी ओर से इसका आभास तक नहीं दिया । जिसने अपने गुरु से ममता और वात्सल्य का अमृत जल न पाया हो और जो जीवन भर प्रखरता की आंच में तपता रहा हो, वह भला किसी को ममता और वात्सल्य का जल कैसे
पाता? उसके पास तो शक्ति और ऊर्जा की आग थी, जो वह दे सकता था, पर उसमें तपना और खपना ही पड़ता था, मधुरता नहीं फूट सकती थी । लाडनूं के ठाकुर आनन्दसिंह जो अत्यन्त श्रद्धालु एवं विश्वसनीय थे । अतः उनके आग्रह पर मुनि कालूजी को बुलाकर उन्हें दिखा दिया तथा संकेत मात्र से ही भावी आचार्य को बता दिया । मन्त्री - मुनि पूर्व वार्ता के संदर्भ में मन ही मन युवाचार्य की कल्पना निश्चित कर चुके थे ।
सुरलोक वास
उस वर्षावास में प्रथम सावन में ही उदर-शोथ, अरुचि व श्वास- प्रकोप बढ़ गया। आपको लगा कि स्वामीजी का चरमोत्सव (भादवा सुदी १३) मनाना सम्भव नहीं होगा । शरीर की शक्ति टूटती गई, साधु-साध्वी तन्मयता से सेवा करते रहे। मुनि कालूजी ( छापर) दोनों समय प्रतिक्रमण सुनाया करते थे । दो सावन बीत गए । भादवा सुदि १० को आपने बंदों की हवेली में चार बहनों को
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