Book Title: He Prabho Terapanth
Author(s): Sohanraj Kothari
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 121
________________ १०८ हे प्रभो ! तेरापंथ अंतिम समय तक स्थिरवास रहा। भयंकर रुग्णावस्था में भी प्रतिदिन आप दो घंटा व्याख्यान अवश्य देते । धाराप्रवाह, ओजपूर्ण भाषा में व्याख्यान सुनकर कोई उनकी अस्वस्थता का अंदाज ही नहीं लगा सकता था। उस समय में गंगाजी में मृतक के फूल डालने, मृतक के पीछे पृथक रूप से रोने आदि अनेक कुरूढ़ियों पर आपने प्रहार किए और जनता को रूढ़िमुक्त किया। अस्वस्थता के कारण विहार करने की इच्छा होते हुए भी आपको रुकना पड़ा। युवाचार्य का गुप्त-पत्र विक्रम संवत् १९६६ की असाढ शुक्ला १४ को आपने उपवास किया व पारणे में केवल काली मिर्च व पतासा की उकाली ली। शक्ति अधिक क्षीण होने से प्रात:कालीन प्रवचन श्री मगनलालजी स्वामी तथा मध्याह्न में मुनि कालूजी (छापर) प्रवचन देने लगे। आपका ध्यान बहत समय से उत्तराधिकारी की खोज में लगा हुआ था पर आपसे निकट सम्पर्क के अभाव में आपकी दष्टि में कोई जम नहीं पाया। आपके आचार्य मनोनयन के कुछ समय बाद एक बार आपने मुनिश्री मगनलालजी को बुलाकर इधर-उधर की चलाते हुए पूछा था, 'आपने मेरी सहमति के बिना मुझे आचार्य चन लिया पर उस समय मैं यदि इनकार कर देता तो आपने विकल्प में क्या व्यवस्था सोची थी ?' मुनि मगनलालजी इतने दक्ष और गहरे थे कि उनसे किसी बात को निकलवाना बहुत कठिन काम था। उन्होंने कहा, 'आपके इनकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता, यह तो संघ की सेवा का काम था, किसी दूसरे को आचार्य बनाते तो आपकी सहमति लेते, पर आपको बनाने में आपकी सहमति की क्या आवश्यकता थी।' श्रीमद डालगणि सोद्देश्य पूछ रहे थे, सम्भवतः मंत्री मुनि भी भांप गए पर वे निरन्तर प्रश्न पूछे जाने पर भी उत्तर टालते रहे। अंत में जब श्रीमद् डालगणि ने उन्हें स्पष्ट उत्तर देने को विवश किया, तो उन्होंने कहा, 'आप मना करते, यह संभव ही नहीं था, पर यदि ऐसा हो ही जाता तो हमारा ध्यान मुनि कालजी (छापर) पर केन्द्रित था।' उत्तर सुनते ही श्रीमद् डालगणि स्तंभित रह गए और बोले, 'मैंने भी दृष्टि तो बहुत दौड़ाई पर इस पर दृष्टि न टिक सकी।' आपने नाम का पता लगने के बाद बात को इस प्रकार समाप्त कर दिया जैसे कोई बात हुई न हो, पर मंत्री मुनि ने तो शुभ संकेत पा ही लिया। श्रीमद् डालगणि तब सेही उत्तराधिकारी की खोज कर चुके थे। मंत्री-मुनि जैसा गम्भीर-चेता परामर्शदाता पाकर वे निश्चिन्त हो गए थे। कृशकाय, श्याम वर्ण, श्रमशील, बाह्य प्रदर्शन से अछूते, गंभीर, एकान्तप्रिय, अपनी आत्म-साधना में लीन, ‘काल मुनि' सचमुच 'गुदड़ी के लाल' थे। किसी सामान्यजन की दृष्टि में भी उनकी असाधारण मेधा और अजेय आत्म-शक्ति की ज्योति किरणें उस समय तक टिक एवं प्रकट नहीं हो पायीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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