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सप्तमाचार्य श्रीमद् डालगणि १०५ करते थे । कष्ट सहने की उनकी क्षमता अद्भुत थी। उनका शासनकाल संवत् १९५४ से १९६६ बारह वर्ष तक रहा। वे अनेक ग्राम, पुर, नगरों में पधारे, सर्वत्र अच्छा उपकार हुआ। अनेक भाई-बहनों ने दीक्षा ली। आपके युग के अनेक मधुर संस्मरण हैं। ___ संवत् १६५४ असाढ़ में साध्वी-प्रमुखा नवलोंजी का स्वर्गवास होने पर आपने साध्वी-प्रमुखा पद पर श्री जेठोंजी की नियुक्ति की। संवत् १६५६ में श्रीचंदजी गधया के पुत्र श्री वृद्धिचंदजी को पानीझरा निकल गया। उन्हें उपचार में औषधि के स्थान पर अफीम का अर्क दे दिया गया, जिससे वे मरणासन्न हो गए, पर पूरे प्रयास करने पर उनका बचाव हो गया, तब श्रीमद् डालगणि ने वहां पधार कर गधैया परिवार को सेवा का अवसर दिया। भक्त के वश में भगवान् की कहावत चरितार्थ हुई । सं० १६५७ मृगशीर्घ में, डालचंद बोराणा (उदयपुर), जो अचक्षु था, तेरापंथ की प्रशंसा में प्राचीन ग्रंथ की उपलब्धि का किस्सा गढ़कर श्रावकों से रुपये ऐंठना चाहता था। उसकी कपट-क्रिया का आपने पर्दाफाश किया। संवत् १६५८ में मुनि चिरंजीलालजी की सेवा परिचर्या में उपेक्षा भाव बरतने के कारण 'तिरखाराम' को आपने गण से बहिष्कृत किया । संवत् १६५६ का चातुर्मास आपने भण्डारी परिवार की विशेष प्रार्थना पर जोधपुर किया। चातुर्मास के बाद बालोतरा, पचपदरा, जसोल में मात्र दो-दो रात बिराज कर आप पाली पधारे ।
बालोतरा में स्थानकवासी आचार्य श्री जवाहरलालजी से शास्त्रार्थ का आयोजन रखा गया। आपने दो दिन चर्चा प्रारम्भ कर पीछे मुनि मगनलालजी, कालूजी छापर आदि ११ संतों को चर्चा के लिए छोड़ दिया पर फिर उनकी तरफ से कोई चर्चा करने नहीं आया। पाली पधारने पर आपको 'पानीझरा' निकल आया। वहां पर १७ दिन विराजना पड़ा। थली के श्रावकों के आग्रह भरे निवेदन पर आपने मेवाड़ का स्पर्श कर थली में चातुर्मास की घोषणा कर दी। शारीरिक अस्वस्थता में मात्र मनोबल के आधार पर सादड़ी, घाणेराव, राणकपुर होते हुए मेवाड़ प्रवेश किया। मेवाड़वालों ने उदयपुर महाराणा के माध्यम में उदयपुर चातुर्मास की प्रार्थना करवाने का निश्चय किया पर आपकी थली में ही चातुर्मास करने की दृढ़ भावना देखकर वे शांत रहे । गोगुंदा में माह वदि १० को आपने दो भाई व चार बहन-कुल छः दीक्षाएं एक साथ दीं। तेरापंथ संघ में इतनी दीक्षाएं एक साथ होने का यह प्रथम अवसर था। उस वर्ष मर्यादा महोत्सव उदयपुर मनाया गया। वहां मारवाड़ के मुसाहिब आला मुसही श्री बछराजजी सिंघी ने आपके दर्शन किए और तेरापंथ के आचार-विचार तथा मर्यादाओं से प्रभावित होकर वे श्री डालगणि के प्रति श्रद्धालु बन गए । बाद में भुवाना में सिंघीजी ने आपके पुनः दर्शन किए तथा विनोदभाव से कहा, 'आप ज्वर से पूरे मुक्त ही नहीं हुए, पर आपने विहार कर दिया। इस प्रकार शरीर की उपेक्षा कर आप कष्ट सहन करते हैं, तब
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