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१०४ हे प्रभो ! तेरापंथ
बने हैं।'
श्री डालगणि समाचार सुनकर सन्न रह गए, उनके मुंह से निकल गया, 'संतों ने इतनी शीघ्रता क्यों की, मेरी प्रतीक्षा तो करते ।' पर अब तो सब कुछ घोषित हो चुका था व सारे देश में खबर प्रसारित हो चुकी थी। जोधपुर में आपका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। वहां स्थिरवासिनी साध्वी किस्तूरोंजी ने आपके मना करने पर भी आचार्य की गरिमा के अनुरूप बहुत भाव-भक्ति से संस्तुति की । जोधपुर से आप नागौर पहुंचे, जहां मुनि गणेशजी तथा छबीलजी पांच संतों से अगवाणी में पहुंच गये थे। लाडनूं पहुंचने पर श्री कालूजी स्वामी (बड़ा) सहित सभी संत, हजारों भाई-बहन और वहां के ठाकर आनन्दसिंहजी नगाड़ा निशान लेकर बड़े आडम्बर के साथ सामने पधारे। आपने लछीरामजी बैद की हवेली के बाहर उच्चासन पर विराजकर प्रथम प्रवचन दिया तथा जनता को अध्यात्म-प्रेरणा दी। हालगणि ने अपने सर्व-सम्मत निर्वाचन पर विस्मित होकर एक दोहे से अपनी अभिव्यक्ति दी, जो इस प्रकार है
'कुण्ड कुण्ड रो न्यारो पाणी, तुण्ड तुण्ड री न्यारी वाणी। था सगलों री मति सरिखी होई, आ तो बात अजब मैं जोई ।।'
माघ वदि २ को पट्टोत्सव मनाया गया। साधु सतियों ने आपकी हार्दिक अभ्यर्थना की । आपने योग्य साधुओं को सम्मानित किया।
आचार्य पद पर __ श्रीमद् डालगणि एक महान् तेजस्वी आचार्य, कुशल व्याख्याता एवं चातुर्य के धनी थे । अग्रणी जीवन में ही उन्होंने अपने प्रखर व्यक्तित्व की संघ पर छाप डाल दी थी। आचार्य बनने के बाद तो उनकी तेजस्विता इतनी निखर गई कि साधु वर्ग ही नहीं, श्रावकगण भी उनके निकट जाने में संकोच करते थे। रात-दिन सम्पर्क में आने वाले भी सहसा उनके चरण-स्पर्श करने का साहस नहीं जुटा पाते। उनका अनुशासन बहुत कड़ा था। वे अक्सर कहा करते कि 'न तो गलती करो, न उलाहना मिले, न भयातुर रहना पड़े।' वे दृष्टान्त देकर कहते कि 'यदि नाग देवता को प्रसन्न रखना है तो उसके पूंछ पर पैर मत रखो । यदि पैर रख दिया तो फिर सर्प फुफकार करेगा ही।' वे भैक्षव शासन को 'सोलह हाथ की सोड़' कहते, जिसका तात्पर्य था कि अनुशासन और मर्यादा में रहने वाला निश्चित होकर रहे, सुख की अनुभूति करे, गर्मी व सर्दी का उस पर प्रभाव ही न पड़े पर यदि उसने गफलत की, तो फिर उसे क्षमा नहीं किया जा सकता। वे अपने शरीर की कभी परवाह नहीं
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