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हे प्रभो ! तेरापंथ
१०. सती छगनोंजी
- प्रभावक एवं चमत्कारी, ३७ दिन का अनशन, किसी साधु-साध्वी के गलती करने पर दण्ड देते समय आपका हृदय द्रवित हो जाता, आपके मुंह से निकल जाता, 'क्यों तुम गलती करते और क्यों मुझे दण्ड देना पड़ता ।' ऐसी कोमलता के धनी थे श्रीमद् मघवा गणि ।
वागण के दीक्षित प्रमुख शिष्य - शिष्याएं
१. मुनिश्री मगनलालजी
आपका जन्म संवत् १९२६ श्रावण शुक्ला २ को गोगुन्दा (मेवाड़) में पेमचंदजी भोलावत ( पोरवाल ) व उनकी धर्मपत्नी धन्नोंजी के घर पर हुआ। आप जब सात वर्ष के थे, तब आपके पिता मिरगी रोग के कारण हाथी पोल दरवाजा उदयपुर के पास खाई में गिरकर मर गये । आपकी बुद्धि प्रखर व संस्कार सहज सुन्दर थे । आपने दो माह पढ़ाई की जिस पर बारह आना खर्चा हुआ और यदि सोलह आना खर्चा हुआ होता तो आप क्या नहीं कर पाते ? छोटी अवस्था में ही आपको कार्य भार व व्यवसाय सम्भालना पड़ा । संवत् १९४२ में आपने कांकरोली में मघवा गणि के दर्शन किए। तभी से उनसे इतने प्रभावित हुए कि दीक्षा की ठान ली। मघवा गणि चातुर्मास के बाद गोगुन्दा पधारे, तब संवत् १९४३ मगसिर सुदि १४ को आपने, पन्नालालजी ने तथा आपकी माता धन्नोंजी ने दीक्षा ली । Par बाद आप आचार्य प्रवर के साथ ही रहे । आपने पांच सूत्र कंठस्थ किए । शासन के इतिहास, मर्यादा व परंपराओं की गहरी जानकारी प्राप्त की। संवत् १९४४ में श्रीमद् कालूगणि की दीक्षा हुई और तब से दोनों जीवन पर्यन्त अभिन्न साथी की तरह रहे | आप योग्य एवं दूरदर्शी परामर्शदाता थे । संवत् १९५४ में Antra श्रीमद् माणकगणि का स्वर्गवास होने पर आपने अन्तरंग व्यवस्था सम्भाली तथा भावी आचार्य के मनोनयन तक सजग रहे। आपके परामर्श पर मुनि श्रीकालूजी बड़ा ने श्रीडागणिका चुनाव कर संघ में अभिनव इतिहास बनाया । श्रीडालगणि के कड़े अनुशासन में आप सदा अडिग रहे । श्रीमद् कालूगणि की योग्यता की जानकारी श्रीडालगणि को आपसे ही मिली और उसी से उनके आचार्यत्व की संभावना बनी । श्रीमद् कालूगणि के संवत १९६६ में पदासीन होने पर आप हर परिस्थिति में उनके सर्वांश सहयोगी रहे । बीकानेर चातुर्मास ( संवत् १८७९) में उग्र विरोधी वातावरण में आपकी पीठ पर चाबुक मारा गया, पर आपने क्षमा
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