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१०० हे प्रभो ! तेरापंथ
आप कच्छी पूज्य कहलाने लग गए। संवत् १९४१ में आपने कच्छ की प्रथम यात्रा की, बेला में चातुर्मास सम्पन्न कर फतहगढ़ अंजार होते हुए भुज पधारे। वहां नान्ही पक्ष (स्थानकवासी सम्प्रदाय की शाखा) के शास्त्र-मर्मज्ञ एवं प्रतिष्ठित श्रावक बीरचंद भाई ने आपसे अनेक जिज्ञासाएं की तथा संतोषप्रद समाधान प्राप्त किया। उन्हें तेरापंथ के विधि-विधान तथा मान्यताओं की भी जानकारी दी गई, जिससे वे बहुत प्रभावित हुए । उन्होंने अपने गुरु मुनि बीजमलजी से श्रीमद् डालगणि से हुई चर्चा का जिक्र किया । फिर बीरचंद भाई के प्रयत्न से मुनि बीजमलजी और डालगणि के बीच कुछ विषयों पर जैनागमों के आधार पर चर्चा हुई । उसमें मुनि बीजमलजी ने आगम प्रमाण से अपनी मान्यताओं का खण्डन होते देखकर मौन रहना श्रेयस्कर समझा। बीरचंद भाई ने सारी स्थिति भांप ली। तत्काल श्रीमद् डालचन्दजी स्वामी को सारी जनता के सामने अपना गुरु स्वीकार कर लिया। वहां से विहार कर आप माण्डवी पधारे, आगे का चातुर्मास फतेहगढ़ किया । दो माह कच्छ देश में और भ्रमण कर आप आचार्यश्री के दर्शन करने मारवाड़ पधारे ।
दूसरी यात्रा आपने संवत् १६५० में की। आप मारवाड़ से आबू पर्वत होते हए अहमदाबाद पधारे । आबू पधारे, उस दिन २४ मील का विहार हुआ परन्तु अन्न-पाणी नहीं मिला। अहमदाबाद में तीन घंटों की खोज के बाद, धर्मशाला में एक कमरा मिला। वहां से बढवाण, मोखी होते हुए कच्छ पधारे, जहां आपने दो संतों को दीक्षा दी तथा बेला में चातुर्मास किया । वहां अभूतपूर्व धर्म-जागति रही। चातुर्मास के बाद मघवागणि का स्वर्गवास हो जाने से, आपने चूरू पधारकर नये आचार्य माणकगणि के दर्शन किए। तीन वर्ष बाद फिर संवत् १९५३ में आपने पचपदरा से जालोर होकर कच्छ पदार्पण किया। जालोर में आप एक महीना बिराजे और जनता को प्रभावित किया । फिर बाव, राधनपुर होते हुए आपने फतेह गढ़ जाकर चातुर्मास किया व इसके पूर्व व बाद में एक-एक दीक्षा दी। चातुर्मास के बाद आपने सौराष्ट्र में प्रवेश किया। सर्वप्रथम मोखी पधारे जहां ठहरने की व्यवस्था दुकानों में हुई और प्रवचन जिनशाला में होता। प्रवचन का आकर्षण दिन-दिन बढ़ने लगा। वहां अन्य सम्प्रदायों की तेरह साध्वियां थीं, वे वृद्ध होने से जिनशाला की ऊंची सीढ़ियों पर चढ़ नहीं सकती थीं और व्याख्यान सुनने का लाभ लेने को लालायित थीं, अतः उनके निवेदन पर आपने लगभग १५ दिन वहां ठहरकर स्थानक में व्याख्यान दिया। अनाथी मुनि के सरस आख्यान तथा जैन साधु के आचार-विचारों का विशद् विवेचन किया। विदाई में सैंकड़ों लोग व जैन साध्वियां नगर के बाहर तक पहुंचाने आईं। वहां से टंकारा, राजकोट, जूनागढ़ होते हुए, गिरनार पर्वत पर पधारे। बिना किसी पूर्व आग्रह के दिगंबर मंदिर में ही ठहरे । फिर भाव नगर होते हुए आप सिहोर पधारे जहां साम्प्रदायिक द्वेष के कारण ना
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