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छठे आचार्य श्रीमद् माणकगणि
(संवत् १९४६ से १९५४)
जन्म एवं वंश परिचय श्रीमद् माणक गणि का जन्म संवत् १६१२ भादवा वदि ४ को जयपुर नगर में श्री हुक्मीचन्दजी जौहरी एवं उनकी धर्मपत्नी छोटोंजी के घर पर हुआ। आपकी माता का देहान्त शिशुवय में हो गया। दो वर्ष बाद आपके पिता का भी देहान्त गदर के समय डाकुओं की लूट-पाट में दुर्घटनाग्रस्त होने से हो गया । आपका लालन-पालन व अध्ययन आपके पिता के बड़े भाई लाला लक्ष्मणदासजी की देखरेख में हुआ। लालाजी अत्यन्त स्नेहिल, उदार, तत्त्वज्ञ एवं धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। जवाहरात का व्यापार होने के कारण वे बंबई, सूरत आदि नगरों में जाते तथा समय मिलने पर धर्म-चर्चा चलाते। सूरत में उन्होंने आनन्द भाई वकीलवाला (मगन भाई के दादा) के परिवार के अनेक व्यक्तियों को समझाया था और वस्तुतः सूरत, बंबई, गुजरात, महाराष्ट्र में तेरापंथ के बीज-वपन में उनका प्रमुख हाथ था। उनके अभिभावकत्व में रहने से बालक माणक के हृदय में धर्म-संस्कारों के प्रति अच्छी रुचि एवं अभिवृद्धि हुई। शिक्षा-दीक्षा
संवत् १६२८ में श्रीमद् जयाचार्य का जयपुर में चातुर्मास हुआ व उस समय आचार्यप्रवर के प्रेरणादायी प्रवचन सुनकर व उनकी सेवा परिचर्या करने से 'माणक' के हृदय में विरक्ति के भाव जगे। आपने श्रीमद् जयाचार्य को अपनी दीक्षा लेने की भावना प्रकट की। श्रीमद् जयाचार्य ने आपको कहा कि इसमें लालाजी की अनुमति लेनी अनिवार्य है। अतः अनुमति मिलने तक साधना का अभ्यास तथा तत्त्व ज्ञान का अध्ययन चालू रखो। चातुर्मास के पश्चात् श्री जयाचार्य दो महीना घाट दरवाजे तथा सरदारमलजी लूणिया के बाग बिराजे । उसके बाद मर्यादा महोत्सव संपन्न कर उन्होंने फागुण वदि १ को लाडनूं की ओर प्रस्थान किया। लाला लक्ष्मणदासजी सपरिवार, 'माणक' सहित, मार्ग में सेवा में रहे ।
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