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मर्यादा-अनुशासन का पुष्टिकाल ८५
- आचार्य पद पर
आप संवत् १९३८ के भादवा शुक्ला २ को पट्टासीन हुए पर प्रगाढ़ गुरु भक्ति के कारण आपने जीवन पर्यन्त श्री जयाचार्य के पट्टोत्सव माघ शुक्ला १५ को ही मनाया। अपने पट्टोत्सव का दिन कभी नहीं मनाया। आप पट्टासीन हुए तब संघ में ७१ माधु तथा २०५ साध्वियां थीं। २७ गांवों के हजारों यात्रियों ने मिल कर आपका अभिनन्दन किया। आपने उसी दिन ठठेरे के कुएं के पास वटवृक्ष के नीचे मुनि हरदयालजी को दीक्षित किया, फिर प्रवचन दिया और ताराचन्दजी ढीलीबाल (चित्तौड) के डेरे जाकर भिक्षा ग्रहण की। आचार्य पद पर भी, आप किसी से सेवा लेना पसंद नहीं करते। गर्मियों में हवा बंद होने पर, रात्रि को पट से नीचे उतरकर, सामान्य साधुओं के बीच स्थान देखकर स्वयं बिछौना कर सो जाते । आपको सारे संध का अखण्ड विश्वास प्राप्त था। संघ से पृथक मुनि छोगजी कहा करते थे कि उन्हें मघराजजी से कोई शिकायत नहीं है और वे अकेली स्त्री के निकट एकांत में भी रह जाएं तो उनके विषय में कोई शंका नहीं की जा सकती। पौद्गलिक पदार्थों से वे सर्वथा निस्पृह थे । वर्षा ऋतु में हरियाली या जल-बिंदुओं का स्पर्श हो जाता, तो उनको पसीना आ जाता। उन्होंने अपने जीवनकाल में संस्कृत की स्फुट कविताएं, राजस्थानी भाषा में 'जय सुजस' आदि काव्य ग्रन्थों तथा अन्य स्तुतिकाओं की रचना की । वे परिषद् में 'भरत-बाहबलि' संस्कृत काव्य का ओजस्वी भाषा में वाचन करते तो जनता भाव-विभोर हो जाती। एक बार जनता की मांग पर २० वर्ष पूर्व कंठस्थ किए, हरिवंश के कतिपय प्रसंगों को, आपने दुहरा कर सुना दिया। "धर्म-प्रचार-प्रसार
— जयपुर से आपका प्रथम विहार थली की ओर हुआ व सरदार शहर सबसे पहले पधारे। वहां टालोकरों का संगठन टूटने के बाद श्रावक समाज को संगठित एवं "प्रेरित किया। रीड़ी, राजगढ़ आदि क्षेत्रों में जाकर लोगों की जिज्ञासाएं शान्त की। वहां से मेवाड़ के विभिन्न क्षेत्रों में विहार करते संवत् १६४३ का चातुर्मास उदयपुर किया। संवत्सरी के बाद आपने स्थानक में जाकर क्षमायाचना की, चातुर्मास में अच्छी धर्म-जागरणा हुई। चातुर्मास के बाद आप कविराज सांवलदानजी की -बाड़ी में कुछ दिन विराजे । कविराजजी राज्य सम्मानित व्यक्ति तथा आपके भक्त
थे । कविराजजी की प्रेरणा से महाराणा फतेसिंहजी वहां आपके दर्शन करने आए, पर निश्चित समय के बाद, विलम्ब से आए । लगातार 22 मिनट तक आपका उपदेश सुनते रहे, पर ज्योंही सूर्यास्त हुआ और प्रतिक्रमण का समय आया तो आपने उपदेश देना बंद कर, महाराणाजी को कहा, 'बस समय हो गया।' महाराणा
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