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७४ हे प्रभो ! तेरापंथ
श्रीमतोंजी ने ४३ दिन की तपस्या, श्रीझूमोंजी ने चौमासी व छः बार छमासी, श्री जसोदाजी ने उपवास से १६ तक की लड़ी, श्रीसुबटोंजी ने १७ तक लड़ी, श्रीजेठोंजी ने २२ तक चौविहार लड़ी, श्रीवरजूजी ने २० तक लड़ी, श्रीमोतोंजी ने २१ तक लड़ी, श्रीकिस्तूरोंजी ने १८ श्रीलिछमोंजी ने १९ तक, श्रीवगतोंजी ने १७ तक, दूसरे श्रीकिस्तूरोंजी ने १६ तक लड़ी व अनेक मासखमण की तपस्याएं कीं । २४. साध्वी ज्ञानोंजी ने कई मासखमण किए ।
तक,
२५. साध्वी किस्तूरोंजी ने प्रतिवर्ष एक माह बेले बेले तपस्या की । २६. साध्वीश्री रिद्ध जी ने ४६ दिन की तपस्या व कई मासखमण व थोकड़े
किए ।
आपके दीक्षित प्रमुख साधु-साध्वी
१२. मुनि माणकलालजी व २. डालचन्दजी का वर्णन अगले पृष्ठों में है । ३. मुनि पृथ्वीराजजी
आपका जन्म संवत् १६०५ में देसूरी ( मारवाड़) में जीतमलजी पोरवाल व उनकी धर्मपत्नी लिछमोजी के घर हुआ, पर बाद में आप उदयपुर गोद चले गये । कुछ वर्षों बाद साधुओं की सत्संगति से आपको वैराग्य हो गया। दीक्षा की अनुमति चाही, पर उसमें आपको कई प्रकार की यातनाएं दी गईं। अंत में आपका दृढ़संकल्प देखकर अनुमति मिली । कानीड़ में मुनि नाथूजी के हाथ संवत् १९२६ की पौह वदि १० को आपने दीक्षा ली। आप आचार-विचार से निर्मल व विनयव्यवहार में बड़े कुशल थे। आचार्यप्रवर ने आपको उसी वर्ष अग्रणी बना दिया । आपका समूचा जीवन बड़ा त्याग व तपोमय रहा । आप ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय के बिना एक क्षण भी नहीं गंवाते । चार आगम आपको कंठस्थ थे । प्रतिदिन प्रातः आप ४-५ हजार पदों का अर्थ सहित स्वाध्याय करते । संवत् १९४८ से ७१ तक प्रतिवर्ष आपने भगवतीसूत्र का वाचन किया । आपने ३३ व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर दीक्षा के लिए तैयार किया व २२ साधु-साध्विओं को दीक्षा दी । शासनस्तम्भ मुनि नथमलजी (छोड़) को आपने दीक्षित किया था। संवत् १६७२ से १९८५ तक मुनिश्री का गंगाशहर में स्थिरवास रहा। श्रीमद् कालूगणी उनका बहुत सम्मान करते थे । आपका अनुभव-ज्ञान विशाल था । ज्योतिष की आपको अच्छी जानकारी थी । शुभ स्वप्न भी आपको आया करते थे । आपको समय-समय
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