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७२ हे प्रभो ! तेरापंथ
क्षमा-याचना की व पुनः हवेली में पधारने का निवेदन किया । श्री जयाचार्य पुनः वहां पधार गए । उस हवेली में एक शताब्दी से अधिक समय तक साधु-संतों का प्रवासस्थल रहा है । अब भी पीरजी का चबूतरा है । पर आज तक पीरजी के कारण किसी को कोई कष्ट नहीं हुआ । पांच-पांच आचार्यों के चातुर्मास व वृद्ध रोगी साध्विओं के सतत स्थिर वास के उपरांत भी कभी कोई विघ्न उपस्थित नहीं हुआ ।
इसी प्रकार संवत् १९०८ में मुनिश्री सतीदासजी को श्रीमद् जयाचार्य ने आचार्यत्वकाल के प्रथम मिलन के समय अपना परम मित्र व सखा होने के कारण जब अपने आसन पर पास बैठाया तो रात्रि में आभास हुआ कि यह परंपरा ठीक नहीं है । कहा जाता है कि किसी साधु को आचार्य द्वारा अपने आसन पर बिठाने का यह सम्मान प्रथम व संभवतः अन्तिम रहेगा ।
विशिष्टताएँ
आपके युग में दीक्षाओं की विशिष्टता व तपस्या के अनेक कीर्तिमान स्थापित हुए, जिनमें कुछ इस प्रकार हैं :
दीक्षाएं
१. आपने युवाचार्य अवस्था में पंचमाचार्य मघवा गणि को दीक्षित किया । आचार्यकाल में छठे आचार्य माणक गणि को दीक्षित किया । आपके शासनकाल में मुनिश्री हीरालालजी ने सप्तमाचार्य डालगणी को दीक्षित किया ।
२. आपने साध्वी गुलाबोंजी व जेठोंजी को दीक्षित किया जो क्रमश: दूसरी व चौथी साध्वीप्रमुखा बनीं।
३. आपके दीक्षित छः साधु-साध्वी, (१) मुनि छबीलजी, (२) सती भूरोंजी, (३) साध्वी गंगोंजी, (४) साध्वी जयकुंवरजी, (५) साध्वी किस्तूरोंजी, (६) साध्वी जडावोंजी ने आपसे लगाकर वर्तमान आचार्य तक छः आचार्यों का शासनकाल देखा ।
४. मुनि अभयराजजी ने वस्त्राभूषण - सहित दीक्षा ली ।
५. साध्वी ज्ञानोजी ने ६० वर्ष की परिपक्व अवस्था में, अपनी बहन साध्वी चतरूजी के हाथों, संवत् १६१० में दीक्षा ली ।
६. स्थानकवासी आचार्य अमोलक ऋषि की दादी जुहारोंजी सती ने स्थानकवासी संप्रदाय छोड़कर सं० १९२८ में साध्वी चांदकुंवरजी के पास बीकानेर में दीक्षा ली।
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