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७० हे प्रभो ! तेरापंथं आशंका से समूचे गांव में घबराहट मच गई । आपने उस समय तन्मयतापूर्वक उपरोक्त गीतिका का स्मरण किया। गीतिका पूरी होते ही समाचार मिला कि फौजें पास से होकर आगे निकल गईं। उपद्रव शांत होने पर आपने इस गीतिका की विघ्नहरण के रूप में स्थापना की व 'अ. भी. रा. शि. को.' मंत्र को उपसर्ग शमन का हेतु बनाया । आज भी अनेक भक्तजन इस गीतिका व मंत्र का स्मरण व जाप करके शांति प्राप्त करते हैं । संवत् १६१४ में आपने बीदासर में बैंगानियों की पुरानी पोल में चातुर्मास किया। कार्तिक शुक्ला १० की पश्चिम रात्रि में एक भयंकर उपद्रव हुआ-आकाश से अंगारे बरसने लगे। आपके साथ के सारे संत मूच्छित हो गए। उस समय आपने आचार्य भिक्षु, भारीमालजी व संघप्रभावक साधु-साध्वियों का स्मरण कर 'मुणिंद मोरा' नामक गीतिका की रचना कर तन्मयतापूर्वक उसे गाया, जिसके परिणामस्वरूप उपसर्ग तो शांत हो गया, पर संत सचेत नहीं हो पाए । दैवयोग से सरदार सती को उपरोक्त घटना का पता लगा तो वे सूर्योदय के पूर्व ही प्रतिलेखन के समय, साध्वियों को लेकर श्रीमद् जयाचार्य के पास आयी व अचेत साधुओं को उठाकर अन्यत्र ले गई, जहां वे सचेत हुए। अजेय आत्मबली होने से जयाचार्य पर उपसर्ग का प्रभाव नहीं पड़ा । सरदार सती निर्भीक साधिका होने से उपसर्ग के स्थान पर निःसंकोच चली गईं । आज भी 'मुणिंद मोरा' गीतिका प्रभावशाली मानी जाती है व श्रावक-श्राविका इसका मंत्र की तरह स्मरण करते हैं । संवत् १९२६ में बीदासर-प्रवास में बड़ी पंचायती के नोहरे में बिराजते समय आपका पेशाब बंद हो गया व घोर वेदना हुई। उस समय आपने 'भिक्षु म्हारे प्रकट्याजी भरत खेतर में' संस्तुति की रचना कर गाई और गाते-गाते ज्योंही भाव-विभोर हुए कि वेदना स्वतः शांत हो गई। लोगों में आज भी इस संस्तुति के प्रति अटूट श्रद्धा है। श्रीमद् जयाचार्य को जब भी कोई विघ्न, भय, उपद्रव, उपसर्ग, आधि-व्याधि उत्पन्न होते तो वे आचार्य भिक्षु को सम्पूर्ण श्रद्धा से स्मरण कर गीतिका रचते और उनकी सब विपदाएं दूर हो जातीं । संवत् १९०७ में जोबनेर में व संवत् १८९६ में बीदासर में ऐसे ही प्रसंगों की गीतिकाएं बनीं जिनका उल्लेख 'भिक्ष गुण वर्णन' की ढाल १७ व ७ में दिया गया है।
आप शकुन-शास्त्र के मर्मज्ञ थे । आपको स्वप्न आते व उनमें भी कई घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता। आपने अपने महत्त्वपूर्ण स्वप्नों को लिपिबद्ध किया, जिनमें १६०४ मगसि र सुदि पांच संवत् १६०८ आसोज सुदि १३ व संवत् १६१७ फागुन शुक्ला तेरस के स्वप्न महत्त्वपूर्ण हैं । उन स्वप्नों में आचार्य भिक्षु के साक्षात्कार व जिज्ञासा-समाधान का वर्णन है। 'प्रज्ञा-पुरुष-जयाचार्य' पुस्तक के पृष्ठ ५४-५५ पर इसका सम्पूर्ण उल्लेख है । श्रीमद् जयाचार्य ने अन्तर्यात्रा के साथ-साथ बाहर की भी लम्बी यात्राएं की। दिल्ली पावस प्रवास में वे जंगल में
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