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तेरापंथ का निर्माण व युवाकाल में प्रवेश ७१ घूमकर जब अपने स्थल पर आए, तो एक सामुद्रिक शास्त्रज्ञ ने आपके नंगे पैरों की रेखाएं देखीं और वह दंग रह गया। ऐसी उच्च रेखाओं वाला व्यक्ति नदी किनारे नंगे पैर घुमे, यह बात उसकी समझ में नहीं आयी, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तो कोई वैभवशाली राजा ही हो सकता है । वह पदचिह्नों के पीछे-पीछे आपके प्रवासस्थल पर पहुंचा । उसने आपका दीप्तिमान चेहरा व आभामंडल देखा तो लगा कि सबसे बढ़कर धर्मशासन का शास्ता होता है , जिनके चरणों में बड़े-बड़े नृपति भी सिर झुकाते हैं और उसका अनुमान गलत नहीं निकला।
विरोधों में अडिग . आपकी निर्भीकता व साहस से मनुष्य या पशु विरोध में भी आपका कोई न कोई सहायक बन जाता था व विरोध शांत हो जाता था । संवत् १८८३-८४ में श्रीमद् ऋषिराय के साथ आप झाबुआ (मालवा) के जंगल में विहार कर रहे थे कि सामने से भालू आता दिखाई पड़ा। आप तत्काल श्रीमद् ऋषिराय की रक्षार्थ उनके आगे आ गए पर भालू भी वहां एक क्षण रुककर झाड़ियों में अदृश्य हो गया।
संवत् १६२० में आपने मुनिपतजी को दीक्षा दी। मुनिपतजी के दादा थानजी ने विद्वेषी लोगों के बहकावे में आकर जोधपुर-नरेश तख्तसिंहजी के दीवान विजयसिंहजी मेहता से मिलकर राजा के सम्मुख उचित कार्यवाही करने हेतु प्रार्थना-पत्र दे दिया। महाराज दीवान के कहने पर श्रीमद् जयाचार्य व श्री मुनिपतजी को गिरफ्तारी जारी करने के आदेश दे दिए। जब बादरमलजी भण्डारी जो स्वयं उच्च राज्याधिकारी व मंत्री थे, को इसकी भनक पड़ी, तो वे रात्रि में ही राजमहल गए व अनुनय-विनय कर सारी स्थिति की सही जानकारी देकर, वारन्ट निरस्त करने का आदेश प्राप्त किया व अपने पुत्र किशनमलजी को राज्य कर्मचारियों के साथ रवाना कर वारन्ट जाने के पूर्व लाडनूं पहुंचने की व्यवस्था की । इससे प्रसन्न होकर श्रीमद् जयाचार्य ने अपना अगला चातुर्मास (संवत् १६२१) का जोधपुर फरमाया व इसी प्रकार संवत् १६२४ में भूराजी की दीक्षा को लेकर बवंडर मचा, तब भी भण्डारीजी ने उसे शान्त किया व संवत् १९२५ में फिर श्रीमद् जयाचार्य ने जोधपुर चातुर्मास किया।
राजलदेसर के लछीरामजी वैद वहां के राजा से अनबन होने पर लाडनूं आए। उन्होंने पहली पट्टी में दो हवेलियां बनवाईं पर बाद में राजाजी से सुलह होने पर वे वापस चले गए । हवेलियां खाली हो गईं, उन हवेविलों में पीरजी का स्थान था। संवत् १९३१ के शेषकाल में श्रीमद् जयाचार्य आठ संतों सहित इन हवेलियों में विराज रहे थे कि रात को पीरजी ने स्थान खाली करने का निर्देश दिया। श्री जयाचार्य अन्यत्र चले गए। रात्रि को पीरजी ने वहां जाकर श्री जयाचार्य से
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