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तेरापंथ का निर्माण व युवाकाल में प्रवेश ७५ पर देवताओं के दर्शन व सन्देशों के आभास होते रहते थे । स्वर्गवास होते ही कई साधु-श्रावकों ने आपके देवयोनि से तुरन्त आकर दर्शन किए, जिनमें देरासर वाले लाभूरामजी चौपड़ा, भीवराजजी बोथरा (पुनरासर वाले) की धर्मपत्नी भीखीबाई, मुनि आनन्दमलजी आदि का नाम लिया जा सकता है । ऐसी जनश्रुति है कि उन्हें वचनसिद्धि प्राप्त थी- जो कहते, वैसा घटित हो जाता।' चौदह साल गंगाशहर स्थिरवास में रहकर वहां के धर्म-संस्कारों को आपने पुष्ट बनाया। आज भी गंगाशहर की भक्ति व कर्तव्यनिष्ठा के पीछे उनका ही श्रम बोल रहा है। आपका स्वर्गवास संवत् १९८५ के प्रथम श्रावण शुक्ला ६ को प्रभात के समय हुआ। युगप्रधान आचार्य तुलसी ने जयाचार्य निर्वाण शताब्दी पर आपको ‘शासन स्तंभ' से उपमित किया।
४. मुनि छबीलजी
आपका जन्म बगड़ी (मारवाड़) में संवत् १९१६ के फागुन सुदि १५ को उम्मेदमलजी कटारिया व उनकी धर्मपत्नी दौलोंजी के घर पर हुआ। शैशवावस्था में भयंकर रोगग्रस्त होने व बचने की आशा न रहने पर, आपकी माता ने बच्चे की भावना होने पर दीक्षा की अनुमति में बाधा न डालने का संकल्प किया । संयोग से आप बच गए । संवत् १६२८ माघ शुक्ला ८ को आपने व आपकी माता ने श्रीमद् जयाचार्य के हाथों दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के बाद चार वर्ष (संवत् २६ से ३२) श्रीमद् जयाचार्य की सेवा में व १४ वर्ष (संवत् १९३३ से ४६) मुनिश्री कालूजी (बड़ा) की सेवा में रहे । बीच में संवत् १९३४ व ३५ में श्रीमद् जयाचार्य के साथ व संवत् १९४० में श्रीमद् मघवा गणि के साथ रहे । कालूजी स्वामीजी के साथ रहकर आपने अद्भुत ज्ञानाराधना की। संवत् १६३६ में श्रीमद् जयाचार्य सुखपाल में बैठकर जयपुर पधारे, तब सुखपाल के कंधे देने वालों में मुनि मयाचंदजी, रामसुखजी, ईश्वरजी के साथ चौथे मुनि आप थे । संवत् १९३७ में आपके प्रयत्न से कालूजी स्वामी व जेठमलजी गधैया के बीच वार्ता हो सकी व उसका वांछित परिणाम हुआ। संवत् १६५० में आप अग्रणी बने । आपकी व्याख्यान-कला बेजोड़ थी। आपने ११ साधु व ३ साध्विओं को दीक्षा के लिए तैयार किया। संवत १६६० से २००० तक आप चाडवास में स्थिरवासी रहे। आपने अनेक प्रकार के त्याग तपस्या करके आत्मा को उज्ज्वल बनाया। अन्त में पन्द्रह दिन की तपस्या व १८ दिन का आमरण अनशन कर संवत् २००२ की श्रावण शुक्ला २ को आपने
१. शासन समुद्र, भाग ८ में पृ० १५५-१६० तक वणित संस्मरणों के आधार
पर।
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