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तृतीय आचार्य श्रीमद् ऋषिराय (रायचंदजी) ४७ सर्वाधिक चातुर्मास व मर्यादा महोत्सव मिलने का श्रेय प्राप्त है। अनेक कस्बों और गांवों में हजारों तेरापंथी परिवार रहते हैं, और अन्य किसी सम्प्रदाय का अस्तित्व तक नहीं है। अब तक थली प्रदेश के ही सर्वाधिक साधु-साध्वी दीक्षित हुए हैं। संख्या व क्षमता की दृष्टि से श्रावकों का स्थान भी सर्वोपरि है । इस तरह विस्तार का यह नया क्षेत्र श्रीमद् ऋषिराय के समय उद्घाटित हुआ व शीर्षस्थ बन गया।
संवत् १८८६ में श्रीमद् ऋषिराय ने गुजरात, सौराष्ट्र व कच्छ की प्रलंब यात्रा की । मुनि जीतमलजी आपके साथ थे । यात्रा बहुत आह्लादकारी व अपूर्व रही । आचार्यों का गुजरात-प्रवास का भी यह प्रथम अवसर था । इस तरह क्षेत्रीय विकास की नई परम्परा बनी।
युवाचार्य-मनोनयन
श्रीमद् ऋषिराय सं० १८६४ का चातुर्मास करने नाथद्वारा पधारे, तब मुनि स्वरूपचंदजी साथ थे। बाद में उनका विहार मारवाड़ की ओर हो गया था। पीछे मुनि अमीचंदजी ने दुर्भावनावश आचार्यप्रवर का साथ छोड़ दिया और श्रीमद ऋषिराय बिलकुल अकेले रह गये । तेरापंथ के इतिहास में आचार्य के अकेले रहने का यह प्रथम व सम्भवतः अंतिम अवसर है। मुनि स्वरूपचंदजी को आवश्यकतावश पुनः बुलाया गया। उन्होंने आचार्यप्रवर को अनुशासन-हीनता को सख्ती से निपटने का निवेदन किया व जीतमलजी का सहयोग लेने की प्रार्थना की। श्रीमद ऋषिराय मुनि जीतमलजी की प्रखरता व उच्च संयम-साधना से पूर्ण परिचित थे। उन्हें अपने लिए समर्थ सहायक की आवश्यकता थी, अत: आपने सं० १८९४ में चातुर्मास के पूर्व ही श्रीमद् जयाचार्य के नाम, युवाचार्य पद का मनोनयन-पत्र लिखकर स्वरूपचन्दजी स्वामी को दिया और मुनि जीतमलजी का चातुर्मास सुदूर क्षेत्र फलौदी होने से, इस बात को प्रकट नहीं किया। चातुर्मास के बाद दो सन्तों को पत्र देकर उन्होंने मुनि जीतमलजी को बुलाया और जब वे आए तब नाथद्वारा में ही उन्हें युवराज घोषित किया व इस तरह संघ-व्यवस्था, अनुशासन एवं धर्म-प्रचार की भावी दिशा से वे निश्चित हो गए।
स्वर्ग-प्रयाण
संवत् १६०८ में उदयपुर चातुर्मास की परिसमाप्ति पर वे गोगुन्दा, बड़ीछोटी रावलियों, नांदेसमा होते हुए माघ वदि १२ को पुनः छोटी रावलियों में
१. शासन समुद्र, भाग १ ख, पृ० २६५ व शासन समुद्र, भाग २ क, पृ० ७६
७७ के आधार पर विवेचन ।
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