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तृतीय आचार्य श्रीमद् ऋषिराय (रायचंदजी)
(संवत १८७८-१९०४)
मन्म व वंश-परिचय श्री रायचंदजी स्वामी तेरापंथ के तृतीय आचार्य हुए। उनका साधु अवस्था का उपनाम 'ब्रह्मचारी व आचार्य अवस्था का उपनाम 'ऋषिराय' है उनका जन्म उदयपुर डिवीजन (मेवाड़) के गोगुन्दा उपखण्ड में 'बड़ी रावलियों' ग्राम में संवत् १८४७ में शाह चतुरोजी व उनकी धर्मपत्नी कुशालोंजी के घर हुआ। वे ओसवाल जाति में बम्ब गोत्र में पैदा हुए। आपके मामा मुनि खेतसीजी, जो नाथद्वारा के थे, ने संवत् १८३८ में स्वामीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। उनकी प्रेरणा से रायचन्दजी व उनके माता-पिता को तेरापंथ के संस्कार प्राप्त हुए। आपकी मौसी रूपोंजी का विवाह रावलियों में हुआ था। विवाहित होने के बाद उनके हृदय में वैराग्य जागृत हुआ। उन्होंने दीक्षा की अनुमति मांगी जिस पर उन्हें नानाविध कष्ट दिए गए व आखिर खोड़े (लकड़ी का ऐसा उपकरण, जिसमें कीलें लगाकर पैर बन्द कर दिए जाते थे) में उनके पैर डाल दिए गए। इसी अवस्था में २१ दिन निकल गए । बाईसवें दिन खोड़ा स्वतः टूट गया । वे बंधनमुक्त हो गई। इस चमत्कार से प्रभावित होकर उनके पति ने दीक्षा की आज्ञा दी व संवत् १८४८ में उन्होंने स्वामीजी के पास दीक्षा ली। वे प्रख्यात साधिका हुईं। उनके प्रभाव से भी आपके परिवार में विशेष धर्म-जागरण हुआ। दीक्षा एवं युवाचार्य पद
संवत् १८५५-५६ में तेरापंथ धर्मसंघ की विदुषी व शील-संपन्न साध्वी बरजूजी रावलियों पधारी। उन्होंने रायचन्दजी व उनकी माताजी को दीक्षा की प्रेरणा दी, जिसके फलस्वरूप संवत् १८५७ के चैत सुदी १५ को स्वामीजी ने मांपुत्र दोनों को दीक्षित किया। आपके दीक्षित होने के बाद तेरापंथ में विशेष वृद्धि हुई, एक वर्ष में पांच बहनों ने पति छोड़कर दीक्षा ली व अढ़ाई वर्ष में - साधु व ७ साध्वियों ने संयम ग्रहण किया। आपकी प्रतिभा देखकर स्वामीजी ने कहा था कि
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