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तेरापंथ का पालन-पोषण व क्रमिक विकासकाल ४३ रखना असंभव है। आप की दृढ़ भावना देखकर आखिर परिवारवालों ने विवश होकर अनुमति दी। संवत् १८८१ माघ शुक्ला ५ को मुनिश्री हेमराजजी के हाथों गोगुंदा में आपकी दीक्षा हुई। दीक्षा के बाद आप मुनिश्री जीतमलजी के संवत् १८८१ में अग्रगण्य होने के बाद से २३ वर्ष तक लगातार मुनिश्री हेमराजजी की अनवरत सेवा में रहे। उनसे उनकी सम्पूर्ण साधना-शक्ति प्राप्त की। संवत् १९०४ में मुनिश्री हेमराजजी के स्वर्गवास के बाद आप अग्रगण्य बने । श्रीमद् ऋषिराय के संवत् १९०८ में स्वर्गवास होने के बाद श्रीमद् जयाचार्य ने आपको बहुत सम्मानित किया व अपने प्रधान पार्षद की उपमा दी। मुनिश्री हेमराजजी के वरद हाथों दोनों का समान रूप से निर्माण हुआ और इसी कारण दोनों अभिन्न सखा भाव से रहे। आप बड़े आत्मार्थी, पापभीरू व जागरूक थे। आपने अनेक प्रकार के बाह्य व आभ्यंतर तप किए। संवत् १६०६ मगसिर वदि ६ को बीदासर में आपका अकस्मात् स्वर्गवास हो गया। बत्तीस वर्ष तक आपने निर्मल भावना से चारित्र का पालन किया। श्रीमद् जयाचार्य ने आपके बारे में उद्गार प्रकट करते हुए लिखा है
परम मित्र मुझ शांति मनोहर,, सुविनितों सिरताज। याद आवें, निशदिन अधिकेरो, जांण रह्या जिनराज ।। शांति जिसी प्रकृति ना साधु, पंचम आरा मांय ।
बहुल पणे है वेणा अति दुर्लभ, सम दम गुणे सुहाय ।। सचमुच ऐसे विरल मुनियों से तेरापंथ धर्मसंघ सुदृढ़, प्रभावक व गौरवान्वित हुआ है।
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