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- तेरापंथ का पालन-पोषण व क्रमिक विकासकाल ४१
पीपाड़ में संवत् १८७६ भादवा वदि १२ को की। आपके जीवन से सम्बन्धित घटना-प्रसंगों का सविस्तार विवरण ख्यात संख्या ७, भिक्षु यश-रसायण, ऋषिराय-सुयश, जय सुयश, भिक्षु दृष्टांत, हेम दृष्टान्त, श्रावक दृष्टांत तेरापंथ का इतिहास, भिक्षु स्मृति ग्रन्थ तथा शासन समुद्र (भाग १) में उपलब्ध है।
प्रमुख साधु १. मुनि स्वरूपचन्दजी एवं भीमजी स्वामी
ये दोनों श्रीमद् जयाचार्य के अग्रज थे व इनका जन्म क्रमशः १८५० व १८५५ . में हआ। १८६६ में तीनों भाइयों ने अपनी माता के साथ जयपुर में आचार्य भारीमालजी के पास दीक्षा ली। मुनि श्री स्वरूपचन्दजी ने हेमराजजी के साथ छः व आचार्यप्रवर के साथ एक चातुर्मास किया। संवत् १८७२ से ७६ तक तीनों भाई हेमराजजी स्वामी के साथ रहे। मुनिश्री हेमराजजी के साथ सभी भाइयों ने खूब ज्ञानार्जन किया व साधना की। संवत् १८७६ में स्वरूपचन्दजी अग्रगण्य हो गए। अग्रगण्य होने के बाद संवत् १८७६ में लाडनूं व संवत् १८८१ में उज्जैन में चातु
सि किए। संवत् १८६३ में जब श्रीमद् ऋषिराय के साथ अमीचंदजी मुनि ने विश्वासघात कर अकेला रखा, तब आपने नाथद्वारा पधारकर आचार्यप्रवर को साहस बंधाया व उसी समय आचार्यप्रवर ने जीतमलजी के नाम युवाचार्य पत्र लिखकर आपको दिया। थली में आपने खूब प्रचार किया। आप शास्त्रों के गहन अध्येता थे । संवत् १९२० से २५ तक आपका लाडनू में स्थिरवास रहा। श्रीमद् जयाचार्य के पदासीन होने के बाद आपकी सेवा में कम से कम ८ व अधिकतम १८ साधु रहे। आपने अपने हाथ से ८ साधु व ६ साध्वियों को दीक्षित किया। आपने अनेक साधु-साध्वियों की अस्वस्थता व अन्तिम समय में चित्त समाधि स्थिर कर व अनशन कराकर सहयोग दिया। मुनि भवानजी (छोटा) व कालूजी (बड़ा) • को आपने शिक्षा देकर योग्य बनाया। वे आपके जीवन पर्यन्त सेवा में रहे, बाद में अग्रणी बने । आपने कुछ महीने एकान्तर तप तथा १५ दिन की(आछ के आगार) तपस्याएं की। अनेक वर्षों तक शीतकाल में मात्र एक चद्दर ओढ़कर व रात्रि के समय चद्दर उतारकर विशेष रूप से स्वाध्याय करते रहे। जेठ वदि ४ शनिवार संवत् १६२६ (विक्रम) में आपका लाडनूं में स्वर्गवास हुआ। तेरापंथ धर्मसंघ के अग्रगण्य साधुओं में आपका स्थान शीर्षस्थ साधुओं में आता है। .
मुनिश्री भीमजी संवत् १८८२ में अग्रगण्य हुए। वे बड़े सेवाभावी. शांत, सरल, विनयी, उद्यमी, साहसी व निर्जरार्थी हुए। मारवाड़, मेवाड़, मालवा, हाड़ौती,
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