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४० हे प्रभो ! तेरापंथ आपने तपस्या प्रारम्भ कर दी। ज्येष्ठ व असाढ में दस दिन तक की तपस्या की। श्रावण मास में एकान्तर आदि तप किया। संवत् १८७८ का चातुर्मास केलवा में किया। चातुर्मास में भी आपके अस्वस्थता बनी रही, पर आप बराबर आत्मालोचन, क्षमायाचना व आराधना करते रहे व चतुर्विध संघ को उचित शिक्षा फरमाते रहे। लगभग नव महीना केलवा विराजने के बाद पौह माह में आप राजनगर पधार गए। वहां आप 'कालाज्वर' से ग्रसित हो गए व माघ वदि ७ को आपने सागारी संथारा कर लिया। बाद में आपने आजीवन अनशन ग्रहण कर लिया व तीन प्रहर बाद संवत् १८७८ माघ वदि ८ की अर्द्धरात्रि में आपका स्वर्ग-- वास हो गया। माघ वदि ६ को आपका चरमोत्सव ठाठ से मनाया गया। मंडी बड़ी होने के कारण शहर का दरवाजा छोटा पड़ गया तो लोगों ने शहरपनाह का दरवाजा तोड़ दिया जो आज भी 'फूटा दरवाजा' नाम से जाना जाता है। दाह संस्कार में स्वयं महाराणाजी ने आर्थिक सहयोग दिया। कहते हैं कि उनके दाहसंस्कार में उनकी पछेवड़ी नहीं जली, तब लोग श्रद्धावश उसके टुकड़े-टुकड़े कर घर ले गए। उसका एक अढाई इंच का अवशेष लाडन संग्रहालय में आज भी मौजूद है। दीक्षा व तपस्या की विशिष्ट उपलब्धियां
आपके समय निम्न विशेष दीक्षाएं हुई१. कुमारी कन्या नन्दूजी की प्रथम दीक्षा, . २. अविवाहित नौ बालकों की दीक्षा, ३. बहन-भाइयों का जोड़ा (दीपजी, जीवोजी, मयाजी) ४. माता सहित तीन पुत्र-कल्लूजी, स्वरूपचन्दजी, जीतमलजी, भीमजी ५. तीन सपत्नीक दीक्षाएं ६. चार सुहागिन बहनों ..। दीक्षाएं ७. सात स्त्री छोड़कर, पुरुषों की दीक्षाएं ८. पति पहले व बाद में पत्नी की दीक्षा-दो।
मुनि वर्धमानजी को भारीमालजी स्वामी ने आधी रात को, मुनि जीवोजी को स्वरूपचन्दजी स्वामी ने जंगल में गृहस्थ वेश में व साध्वी नन्दूजी को हेमराजजी स्वामी ने जंगल में गहने-कपड़े सहित दीक्षा दी। आपके युग में साध्वी चतरूजी ने १२, स्वरूपचन्दजी स्वामी ने १७ व हेमराजजी स्वामी ने १२ दीक्षाएं दीं। आपके समय में संवत् १८७४ में मुनि बख्तोजी ने १०१ दिन, १८७६ में मुनि पीथलजी ने १०६ दिन, १८७७ में मुनि पीथजी व माणकजी ने चार-मासी तप व १८७७ में वर्धमानजी ने १०३ दिन की आछ के आगार पर तपस्याएं कीं। मुनिश्री हेमराजजी ने आपके स्वर्गवास के पश्चात 'भारीमाल-चरित्र' आख्यान की रचना
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