Book Title: He Prabho Terapanth
Author(s): Sohanraj Kothari
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 51
________________ ३८ हे प्रभो ! तेरापंथ अविचल साथ रहा ।" स्वामीजी ने अंतिम समय में प्रदत्त साधुओं को शिक्षा में भामालजी स्वामी की आज्ञा का अखण्ड पालन करने हेतु उद्बोधन दिया । स्वामीजी के स्वर्गवास से आशंकित विरह वेदना में जब आप व्यथित हुए तो स्वामीजी ने कहा, "तुम उदार यशवाले देव बनकर महाविदेह क्षेत्र में अर्हतों के दर्शन करोगे । अतः मेरे विरह की क्यों चिंता करते हो ?" स्वामीजी के अन्तिम अनशन के समय आपने उन्हें हर प्रकार से चित्त समाधि 'उपजाने के लिए सहयोग दिया । प्रचार-प्रसार, दीक्षा आदि आपने आचार्य बनने के बाद १८ वर्षावास बिताये, जिनमें ५ मेवाड़, ६ मारवाड़ व २ ढूंढाड़ के कुल १३ नगरों का स्पर्श किया। आपके शासनकाल में ३८ साधु व ४४ साध्वियां प्रव्रजित हुईं जिनमें ६ साधु व ३ साध्वी गण से बहिभूर्त हो गईं। आपकी व्याख्यान शैली आकर्षक व आवाज बुलन्द थी। आपकी गंभीरता व निर्मल आत्मा के कारण कई मूर्तिपूजक व स्थानकवासी साधु तक आपके पास प्रायश्चित्त लेने आते । आप छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं को तत्त्व ज्ञान सिखाने की विशेष प्रेरणा देते। आप कुशल लिपिकर्ता थे, आपने लगभग पांच लाख श्लोकों की प्रतिलिपि की व स्वामीजी के समग्र साहित्य को लेखबद्ध कर प्रामाणिकता दी । आपकी प्रेरणा से मुनिश्री हेमराजजी ने संवत् १८६६ में किशनगढ़ चातुर्मास कर वहां अच्छा उपकार किया व महेशदासजी जैसे प्रतिभासंपन्न कवि को समझाकर आस्थाशील श्रावक बनाया । आपने संवत् १८६९ का चातुर्मास जयपुर किया, जो बहुत प्रभावक रहा। तब से जयपुर तेरापंथ का स्थायी क्षेत्र बन गया। वहीं पर कल्लूजी व उनके तीन यशस्वी पुत्र – स्वरूपचन्दजी ( प्रमुख अग्रगण्य ), जीतमलजी (जयाचार्य) व भीमजी ( महान तपस्वी) ने दीक्षा ली। आपके युग में वेणीरामजी स्वामी ने १८६६ में रतलाम व १८७० में उज्जैन चातुर्मास किये । संवत् १८७५ में कांकरोली में चातुर्मास कर आप शेषकाल में उदयपुर पधारे व वहां पर अनेक लोगों को समझाया । विद्वेषी लोगों ने आपके विरुद्ध महाराणा भीमसिंहजी के कान भरकर उदयपुर से निष्कासन करवा दिया। आपके विहार होते ही संयोग से शहर में महामारी फैल गई। महाराणा के पाटवी पुत्र व दामाद का अल्प समय में देहान्त हो गया जिससे महाराणा दुःखी और चिंतातुर हो गये । केशरजी भंडारी महाराणा के विश्वस्त अधिकारियों में थे । वे प्रच्छन्न तेरापंथी थे । उन्होंने महाराणा को आचार्य भारी मालजी के निष्कासन के लिए उपालम्भ देकर इसे सारी दुरवस्था का कारण बताया। महाराणा आपको वापस बुलाने को आतुर हो उठे और उन्होंने एक पत्र आपकी सेवा में भिजवाया, जो इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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