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३२ हे प्रभो ! तेरापंथ ३. श्रावक विजयचन्दजी पटुआ
आप पाली (मारवाड़) के थे व गौत्र पोरवाल था। एक बार स्वामीजी पाली पधारे । मूलतः स्थानकवासी होने के कारण, सामाजिक प्रतिबन्ध से, आप स्वामीजी के पास दिन को न जाकर, रात को गये। सोने का समय हो गया था, पर आप स्वामीजी से जिज्ञासाएं करते रहे व समाधान पाते रहे । सारी रात इसी चर्चा-वार्ता में बीत गई। आपके साथ आपके मित्र वर्धमानजी श्रीमाल भी थे । प्रातः प्रतिक्रमण का समय हुआ व दोनों ने गुरु-धारणा कर ली। पटवाजी को स्वामीजी की मान्यताओं व चरित्रनिष्ठा के बारे में दृढ़ विश्वास था और वे इसके विपरीत किसी की बात नहीं मानते। एक बार वे दुकान बन्द कर स्वामीजी के पास सामायिक करने बैठ गये। फिर याद आया कि वे रुपयों की थैली दूकान के बाहर भूल आए हैं, पर उन्होंने समभाव रखकर एक और सामायिक ले ली। वापस गये तो देखा, एक बकरा रुपयों की थैली पर बैठा हुआ है व थैली पर किसी की नजर नहीं पड़ी । ऐसी समता बिरलों में होती हैं। वे विनम्र व व्यवहारकुशल थे। उनकी उदारता एवं अविचल आस्था के अनेक उदाहरण हैं । ४. श्रावक गुमानजी लूणावत __वे पीपाड़े के तत्त्वज्ञ व धर्मनिष्ठ श्रावक थे। उन्होंने स्वामी का समग्र साहित्य कंठस्थ कर लिपिबद्ध किया, जो 'गुमानजी लूणावत के पोथे' के नाम से प्रख्यात है, उन्होंने बारह व्रत धारण किए।
स्वामीजो की मान्यताएं धर्म की विशुद्ध व्याख्या ___ स्वामीजी जैन दर्शन से प्रभावित थे और उनकी सारी साधना का आधार जैन धर्म और दर्शन था। राग-द्वेष को जीतने वाले पुरुष को 'जिन' कहा जाता है और उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म 'जैन-धर्म' के नाम से जाना जाता है। जैन दर्शन का अन्तिम व प्रमुख लक्ष्य आत्मा की समुज्ज्वलता व कर्म-बन्धन से मुक्ति है। उसमें पदार्थ जगत के प्रति मोह, ममता, मूर्छा को किंचित भी स्थान नहीं है । वैसे भी जैन दर्शन का सार आत्मज्ञान, आत्मसाक्षात्कार व आत्मसाधना (सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चरित्र) की अभिवृद्धि करना व आत्मा को शुद्ध, प्रबुद्ध, सिद्ध अवस्था में प्रतिष्ठापित करना है। स्वामीजी ने इन मान्यताओं को प्रखरता से, बिना किसी दबाव, प्रलोभन या लोक-रंजन की भावना से, जनता
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