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३० हे प्रभो ! तेरापंथ रचना की।
__ स्वामीजी का हेमराजजी के प्रति अत्यंत स्नेह था। द्वितीय आचार्य भारीमालजी उनसे परामर्श लेते रहते व संवत् १८७८ में उन्होंने रायचन्दजी को युवराज पद भी आपकी सहमति से ही दिया । श्रीमद् रायचन्दजी ने आपको सदा अतीव सम्मान दिया व श्रीमद् जयाचार्य की हर श्वास ही आपके प्रति कृतज्ञ भाव से प्रेरित थी। इस तरह चार आचार्यों से बहुमान प्राप्त करने वाले आप तेरापंथ के विरल साधुओं में हैं। संभवतः आचार्यों के सदृश ही उन्होंने धर्मसंघ की कीर्ति बढ़ाई है, आपके जीवन के साथ तेरापंथ धर्मसंघ के कई ऐतिहासिक प्रसंग जुड़े हुए हैं, जिनका विशद विवरण 'शासन समुद्र , भाग २' के पृष्ठ १४६ से २३६ तक में दिया गया है। आप अच्छे साहित्यकार थे व आपकी कृतियों में 'हेम दृष्टांत', 'भिखु चरित', 'भारीमाल चरित', 'खेतसी चरित', 'वेणीरामजी रो चोढालियो,' 'वीरचरित्र,' 'नमोत्थुणे की जोड़,' 'बड़ी चौवीसी' आदि कई महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं। - संवत् १६०४ में आमेट चातुर्मास कर आप मारवाड़ पधारे व जेठ वदि ३ को सिरीयारी में प्रवेश किया। लोगों से आपके आगमन से हर्ष छा गया, द्वादशी तक आप स्वस्थ रहे, चतुर्दशी को श्रीमद् जयाचार्य ने जयपुर चातुर्मास सम्पन्न कर आपके दर्शन किए। साध्वी सरदारांजी ने भी दर्शन किए। फिर आपके स्वास्थ्य में गड़बड़ हो गई । मुनिश्री जीतमलजी ने आपको महाव्रतों की आलोचना करवाई व आपने आराधना की एवं चौबीसी की गीतिकाएं मनोयोगपूर्वक सुनीं। जेठ सुदि २ को प्रतिलेखन के बाद, अस्वस्थता बढ़ती देख, श्रीमद् जयाचार्य ने सागारी अनशन कराया व दो मुहूर्त दिन चढ़ने पर आप स्वर्ग प्रयाण कर गए । आचार्यश्री श्रीमद् ऋषिराय दो घड़ी बाद पहुंचे व समाचार सुनते ही उन्होंने कहा, "मेरे लिए यह महादुखद समाचार है, इतना दुखद अवसर पहले कभी नहीं आया।" इस प्रकार तेरापंथ धर्मसंघ के एक महान्, यशस्वी व्यक्तित्व व शासन स्तम्भ ने ५१ वर्ष की अपूर्व संयम साधना कर अपना नश्वर शरीर छोड़ा, पर वे तेरापंथ के इतिहास में सदा अजर-अमर रहेंगे।
प्रमुख श्रावक १.श्रावक गेरूलालजी व्यास
अभिनिष्क्रमण से पूर्व, सं० १८१६ में, भिक्षु स्वामी के जोधपुर चातुर्मास के समय, वे स्वामीजी के प्रति आस्थाशील बने। तेरापंथ नामकरण की घटना के
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