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२८ हे प्रभो ! तेरापंथ थे और उनकी विशिष्ट कृति 'भिक्खु चरित' में स्वामीजी के जीवन पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है।
७. मुनिश्री हेमराजजी
संवत् १८१७ में स्वामीजी के साथ तेरह संत अभिनिष्क्रमण में जुड़े थे, पर थोड़े ही समय में कष्टों से घबराकर ७ ने साथ छोड़ दिया, उसके छत्तीस वर्ष बाद संवत् १८५३ में हेमराजजी तेरहवें साधु हुए और फिर तेरापंथ धर्मसंघ में अभूतपूर्व वृद्धि हुई । मुनि हेमराजजी का जन्म संवत् १८२६ माघ शुक्ला १३ को सिरीयारी में अमरोजी बागरेचा (आछा) के घर सोमाजी की कुक्षि से हुआ। वे बाल्यकाल से ही बड़े प्रतिभावान और होनहार थे व उनकी धार्मिक रुचि सराहनीय थी व आचार्य भिक्षु व साधु-साध्वियों की सेवा करके उन्होंने अच्छा तत्त्वज्ञान सीखा व श्रावक के बारह व्रत धारण किए । उनकी बुद्धि तीव्र व कंठ मधुर था । वे व्यापार निमित्त पाली, बिलाड़ा आदि स्थानों में जाते, तब लोगों को धर्मोपदेश देते, तत्त्व चर्चा कर दया-दान, धर्म-पुण्य का हार्द समझाते । वे चर्चा में कभी उत्तेजित नहीं होते । स्वामीजी के वे अनन्य भक्त थे, व स्वामीजी उनकी प्रतिभा से प्रभावित थे व उन्हें समय-समय पर दीक्षा लेने की प्रेरणा देते रहे। एक बार मार्ग में उन्होंने फिर आपको प्रेरणा दी, तो आपने स्वामीजी से नव वर्ष बाद ब्रह्मचर्य धारण कर लिया। स्वामीजी ने उन्हें संकल्प करा कर उद्बोधन दिया, "नव वर्ष का समय तुमने विवाह कर गृहस्थी बसाने के लिए रखा है पर एक वर्ष तो विवाह योग्य कन्या देखने, मुहर्त जुटाने में लग जायेगा। नव वर्ष में एक वर्ष तक स्त्री पीहर रहेगी, सात वर्ष में दिन को कुशील की वर्जना से, स्त्री के साथ सांसारिक सुख मात्र साढ़े तीन वर्ष का रहा, उसमें तुम जैसे श्रावक के पांच तिथियों में अब्रह्मचर्य सेवन का त्याग होने से, समय मात्र दो वर्ष रहा, फिर दो वर्ष में भी रात्रि के चार प्रहर में, अधिकतम एक प्रहर का समय ही क्रीड़ा के लिए लग सकता है, ऐसी स्थिति में मात्र छ: माह के सांसारिक सुख के लिए, नव वर्ष का साधुत्व खोना, कहां की बुद्धिमानी है ? फिर विवाह के बाद बच्चे हों व औरत मर जाय, तो सारी आफत गले आ जाएगी, व साधु बनना असंभव हो जाएगा, अतः यही श्रेयस्कर है कि तुम शीघ्र साधु बन जाओ।" सिद्धहस्त गुरु के वचनों की चोट का नैसर्गिक शिष्य पर तुरन्त प्रभाव पड़ा व मार्ग में ही खड़े-खड़े उन्होंने दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। यह बात तो हममें से बहुतों ने सुनी व पढ़ी होगी पर कभी दीक्षा की भावना ही नहीं बनती। हेमराजजी जैसे पुण्यशाली एवं निर्मल चित्त पर ही इसका प्रभाव पड़ सकता था। संवत् १८५३ माघ शुक्ला १३ को सिरीयारी में विशाल वटवृक्ष के नीचे हजारों नर-नारियों की उपस्थिति में आपको स्वामीजी ने दीक्षा प्रदान की। दीक्षा के पूर्व ही स्वामीजी ने अपने युवाचार्य
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