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तेरापंथ का उदयकाल २७ समाधि अनुभव की।" स्वामीजी के बाद संवत् १८६० से १८७८ तक वे द्वितीय आचार्यश्री भारीमालजी के साथ रहे व उनकी खूब सेवा की। उनकी सेवाभावना से प्रसन्न होकर संवत् १८७८ में भारीमालजी ने युवाचार्य के मनोनयन में पहले उनका व बाद में रायचन्दजी का, दो नाम लिखे, जिस पर मुनि जीतमलजी ने निवेदन किया कि "दो नामों की परम्परा ठीक नहीं है।" जिस पर हेमराजजी स्वामी व आपने भारीमालजी स्वामी को श्री रायचन्दजी को उत्तराधिकारी बनाने का निवेदन किया, तब आपका नाम काट दिया गया पर आप इतने निरभिमानी एवं निस्पृह थे कि उसका आप पर तनिक प्रभाव नहीं पड़ा। साधु जीवन में उन्होंने उपवास से लगाकर १८ दिन तक की तपस्या की व बहुत वर्षों तक खड़े रहकर एक प्रहर तक स्वाध्याय करते रहे। आपका स्वर्गवास संवत् १८८० आषाढ़ वदि १४ को संलेखना संथारा सहित पीपाड़ में हुआ।
५. मुनिश्री वेणीरामजी ___ आपका जन्म अनुमानतः सवत् १८२६ में बगड़ी में हुआ, व आपकी दीक्षा संवत् १८४४ में पाली में स्वामीजी के हाथों हुई । मुनिश्रीने बाल्यावस्था में अच्छा ही विद्याभ्यास कर ज्ञानार्जन किया व व्याख्यान कला में प्रवीण हए। वे थोड़े समय में ही पंडित, चर्चावादी, गुणग्राही, औत्पातिकी बुद्धि वाले, शास्त्रों के विशेषज्ञ, नीति निपुण व प्रभावशाली मुनि बन गए । जैन सिद्धान्तों के अतिरिक्त स्वामीजी द्वारा रचित लगभग ३८ हजार पद उन्हें कंठस्थ थे। हेमराजजी को प्रेरणा देने में उनका विशेष श्रम रहा। संवत् १८६० में पाली से चातुर्मास काल में विहार कर वे स्वामीजी के अन्तिम अनशन के समय सिरीयारी पहुंचे, जो लगभग ३३ मील दूर है, व चरम सेवा का लाभ लिया। मुनिश्री ने अपने हाथ से ७ संतों को दीक्षित किया। वे अच्छे धर्म-प्रचारक साधु थे व संवत् १८७० में मालवा प्रदेश पधारे, जहां उन्हें बहुत कष्ट उठाना पड़ा। रतलाम में तीन दिन में नौ स्थान बदलने पड़े, आहार-पानी का परिषह रहा, पर आपने उसकी परवाह नहीं की। रतलाम, खाचरोद, बड़नगर होते हुए संवत् १८७० का चातुर्मास आपने उज्जैन में किया । वहां से झालरापाटन होते हुए आपने सवाई माधोपुर में आचार्य भारीमालजी के दर्शन किए, व उनके साथ जयपुर गए । आपका अगला चातुर्मास जयपुर घोषित हुआ, पर चातुर्मास के पूर्व जब आप चासट पधारे तो वहां आपको ज्वर हो गया। एक यति ने द्वेषवश आपको औषधि के स्थान पर विष दे दिया, जिससे संवत् १८७० के जेठ शुक्ला १० को आपका स्वर्गवास हो गया। वे प्रतिभा-संपन्न कवि
१. आचार्य भिक्षु : धर्म परिवार-लेखक श्रीचंदजी रामपुरिया, पृ० २२३ व
शासन समुद्र, भाग १ (ख)-लेखक मुनिश्री नवरत्नमलजी, पृ० २७६ ।
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