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२६ हे प्रभो ! तेरापंथ ३. मुनिश्री भारीमालजी
जीवन भर स्वामीजी के प्रति समर्पित रहे व स्वामीजी ने उन्हें शासन की बागडोर सौंपी। उनका वर्णन आगामी पृष्ठों में किया जायेगा।
४. मुनिश्री खेतसीजी
खेतसीजी का जन्म नाथद्वारा के भोपाशाह व उनकी धर्मपत्नी हरूजी के घर संवत् १८०५ में हुआ। वे तृतीयाचार्य श्रीमद् ऋषिराय के मामा थे। उन्होंने दो शादियाँ की पर दोनों पत्नियों का क्रमशः देहान्त हो गया, तब उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया । गृहस्थावस्था से भी वे तपस्या व पौषध में रुचि रखते व एक बार नव की तपस्या व ७२ प्रहर का पौषध किया। वे पापभीरू व कोमल प्रकृति के थे । व्यापार में भी वे उत्तरासन लगाकर बातें करते तथा वस्त्रों को यत्नापूर्वक रखते व ग्राहकों से मधुर व्यवहार करते व कपड़े पर पशु-पक्षी की छाप होती तो उसे बीच में न फाड़ते । उनकी दो बहनें कुशलोंजी व रूपोंजी रावलियों में ब्याही गई थीं। संवत् १८३८ में उन्होंने स्वामीजी से नाथद्वारा में दीक्षा ली, दीक्षित होने के दूसरे दिन उन्होंने स्वामीजी के साथ कोठारिया विहार किया और पीछे उनके पिता की मृत्यु हो गई। स्वामीजी ने नवदीक्षित समझकर कहा, “खेतसी, विचार मत करना" तो आपने कहा, "मैं संसार में था तब वे मेरे पिता थे, अब आप हैं। मेरे पिता का वियोग हुआ ही नहीं, फिर चिता किस बात की ?" मुनि खेतसीजी स्वामीजी के अत्यन्त विनीत, सेवभावी शिष्य थे, अतः स्वामी जी ने उन्हें 'सतयुगी' नाम से सम्बोधित करना प्रारम्भ कर दिया। वे इतने विनम्र थे कि स्वामीजी इस बात का ध्यान रखते थे कि उन्हें बुलाते समय उनके हाथ में पात्र आदि न हो, क्योंकि वे तत्काल आ जायेंगे, व पात्र का ध्यान नहीं रखेंगे, जिससे सम्भव है, पात्र हाथ से छूटकर गिर जाए व फूट जाए । विनय और विवेक के साथ उन्होंने सैद्धान्तिक व तात्त्विक ज्ञान का भी गहरा अध्ययन किया। उनकी प्रेरणा से उनकी दोनों बहनें कुशलोंजी व रूपोंजी व भानजे रायचन्दजी ने कालान्तर में दीक्षा ले ली । एक बार स्वामीजी की शारीरिक अस्वस्थता में खेतसीजी को बार-बार रात को उठना पड़ा तो उन्होंने स्वामी जी को कहा, "आपको रात्रि में ज्यादा कष्ट रहा।" स्वामीजी ने सोचा यह अपने कष्ट की बात कर रहा है, अतः उन्होंने कहा, “आज रात्रि मैं तुम्हें बिल्कुल नहीं जगाऊँगा।" प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा, "मैं आज रात्रि में बिल्कुल नहीं सोऊँगा।" उन्होंने संवत् १८४४ में मुनि वेणीरामजी को प्रतिबोध देने हेतु बगड़ी में चातुर्मास किया, व शेष सारे चातुर्मास स्वामीजी के साथ बिताए । स्वामीजी ने अपने अंतिम समय में कहा, "सतयुगी के सहयोग से सुखपूर्वक संयम पालन किया एवं परम
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