________________
तेरापंथ का उदयकाल
स्वामीजी के प्रमुख शिष्य
१. मुनिश्री थिरपालजी व फतेहचंदजी
ये दोनों पिता-पुत्र थे व मारवाड़ के लांबिया गांव के थे। दोनों ने पहले स्थानकवासी सम्प्रदाय में आचार्य जयमलजी के पास दीक्षा ली। संवत् १८१४
'राजनगर चातुर्मास में इन्हें सही साधुत्व का परिचय मिला, पर वे अलग परम्परा का सूत्रपात न कर सके । स्वामीजी के अभिनिष्क्रमण के समय वे उनके साथ हो गए, पहले दीक्षा में बड़े होने के कारण स्वामीजी ने तेरापंथ में भी इन्हें अपने से बड़ा रखा, इस दृष्टि से तेरापंथ के प्रथम मुनि थिरपाल व दूसरे फतेहचंद हैं व इन दोनों शुभ नामों से तेरापंथ थिरपाल से प्रारम्भ हुआ व उसने फतह प्राप्त की । दोनों उग्र तपस्वी थे, पर प्रकृति के सरल व निस्पृह थे । एक बार आप दोनों कोटा विराज रहे थे, वहां के महराजा ने आपकी तपस्या की महिमा सुनकर दर्शन करने की उत्सुकता प्रकट की तो आपने यह कहकर विहार कर दिया कि 'दर्शन तो गुरु महाराज के करने चाहिए, हम तो साधारण साधु हैं ।' लोगों के उग्र विरोध व अशिष्ट व्यवहार से हताश होकर जब स्वामीजी ने लोक-कल्याण की भावना का परित्याग कर आत्मकल्याण हेतु घोर तपस्या का मार्ग चुना, तब आपने ही उन्हें प्रेरणा देकर पुनः स्वामीजी को लोक-कल्याण की ओर प्रवृत्त किया । संवत् १८३१ में मुनि फतेहचदजी को ३७ दिन की तपस्या के पारणा में 'ठण्डी बाजरे की घाट' मिली, जिसके खाने से विकृति होने से उनका बडलू में देहान्त हो गया । इसके बाद थिरपालजी ने और भी कठोर तप प्रारम्भ कर दिया व उनका स्वर्गवास संवत् १८३३ के कार्तिक वदि ११ को खैरवा में हुआ ।
Jain Education International
२५.
२. मुनिश्री टोकरजी एवं हरनाथजी
आचार्य रुघनाथजी महाराज के पास ये दोनों मुनि स्थानकवासी सम्प्रदाय दीक्षित हुए व संवत १८१५ के राजनगर चातुर्मास में स्वामीजी के साथ 1 अभिनिष्क्रमण के बाद भी वे स्वामीजी के साथ ही रहे, व केलवा में नई दीक्षा ली । आचार्य भिक्षु की विनय भक्ति व सेवा में दोनों सदा दत्तचित्त रहे व उनके कारण स्वामीजी को चित्तसमाधि रही । मुनि टोकरजी का स्वर्गवास संवत् १८३८ चैत सुदि १५ व आसाढ़ सुदि १५ के बीच हुआ व हरनाथजी का संवत् १८४६-४७ के आस-पास हुआ, निश्चित तिथि उपलब्ध नहीं है ।'
१. आचार्य भिक्षु : धर्म परिवार - लेखक श्रीचंदजी रामपुरिया, पृ० १४३ के आधार ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org