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तेरापंथ का उदयकाल
प्राप्त कर सकोगे ।"
स्वामीजी का यह अन्तिम संदेश बड़ा ही मार्मिक व उपयोगी था, उन्होंने बाल- साधु रायचन्दजी को उनके प्रति मोह न रखने व आत्मकल्याण में सतत प्रवृत्त रहने की प्रेरणा दी। युवाचार्य श्री भारीमलजी स्वामीजी के अनन्य भक्त थे, आचार्य भिक्षु के पंडितमरण की बात सुनकर वे व्यथित हो गए व कहा, "भगवन् ! आपकी उपस्थिति में मन में साहस बना रहता था, आपके दर्शनों का वियोग व साक्षात्कार का विरह मुझे दुःसह होगा ।" भिक्षु स्वामी ने उन्हें आश्वस्त करते कहा, “तुम्हारी ऋजुता व निर्मल आत्मसाधना से निश्चित है कि तुम देवगति में जाकर महाविदेह में अर्हतों के दर्शन कर शीघ्र मुक्ति प्राप्त करोगे ।" अन्य विनीत शिष्य श्री खेतसीजी भी विचलित हो गए, पर उन्होंने साहस बटोरकर कहा, "आप तो शीघ्र स्वर्ग-गमन करेंगे, दैविक सुखों में जा रहे हैं ।” स्वामीजी ने प्रत्युत्तर में उन्हें टोकते हुए कहा, "मेरी स्वर्ग में जाने की तनिक भी चाह नहीं है, पौद्गलिक सुख क्षणभंगुर एवं अनित्य हैं। मैं कर्म - बंधन से मुक्ति प्राप्त करूं, यही मेरी चाह है। तुम भी इसी चाह से आत्मसाधना में लीन रहना ।" स्वामीजी की चित्तवृत्ति अत्यन्त वैराग्यपूर्ण बन रही थी ।
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स्वामीजी (आचार्य भिक्षु) ने अपने प्रमुख शिष्य युवाचार्य श्री भारीमालजी एवं श्री खेतसीजी की उपस्थिति में अपने महाव्रतों में हुई सब प्रकार की स्खलना की आलोचना की, गण के साधु-संत, अन्य सम्प्रदाय के साधु-संत, श्रावक, श्राविका व पूरे जन समुदाय से जान-अनजान में हुए किसी भी प्रकार के गलत व्यवहार के लिए क्षमायाचना की। उन्होंने भाव-विभोर होकर, क्षमा प्रार्थना कर, अपने को निर्मल व निःशल्य बना दिया ।
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संवत्सरी के पारणे में अल्पाहार लिया, पर वमन हो गया और तब से स्वामी जी ने तपस्या का क्रम बढ़ा दिया। नवमी के दिन आहार की रुचि न होने पर भी खेतसीजी स्वामी के आग्रह पर उनके हाथ से अल्पाहार किया व दशमी के दिन - भामालजी स्वामी के हाथ से मात्र ४० चावल व १० मोंठ स्वीकार किये । शेष समय के लिए आहार छोड़ दिया । एकादशी को स्वामीजी ने अन्न त्याग रखा था, द्वादशी के दिन आचार्य भिक्षु ने तीन आहार का त्याग कर बेला ( दो दिन का उपवास) किया व अन्तिम अनशन करने का संकल्प कर लिया । धूप निकलने पर वे कच्ची हाट के सामने, पक्की हाट में आकर विराजे व विश्राम करने लगे कि इतने में बालमुनि रायचन्दजी ने दर्शन किए व स्वामीजी के शरीर की स्थिति को देखकर कहा, "आपका पराक्रम क्षीण पड़ रहा है, शक्ति मन्द हो रही है ।" मुनिश्री के इतने कहने मात्र से मानो सोया सिंह जाग उठा हो व एक बार फिर सिंहनाद गूंज उठा । तुरन्त उन्होंने अपने सभी शिष्यों को बुलाकर ऊंचे स्वर से अर्हत व सिद्ध भगवान् की साक्षी से यावत् जीवन आहार का त्याग कर लिया ।
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