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हे प्रभो ! तेरापंथ
था और यहीं स्वामीजी का समाधि स्थल भी बना । आज सिरीयारी बहुत छोटा-सा गांव है। वहां मुश्किल से ओसवालों के ५० घर खुले रहते हैं पर स्वामीजी के अनशन व समाधि स्थल होने से तेरापंथ का एक ऐतिहासिक क्षेत्र बन गया है । दो वर्ष पूर्व राणावास चातुर्मास में भिक्षु चरम महोत्सव जब युग-प्रधान आचार्यश्री तुलसी ने सिरीयारी में मनाया तब उसमें नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंहजी सम्मिलित हुए व पचास हजार व्यक्ति एकत्र हो गए, जो दृश्य सचमुच मनोहारी व अविस्मरणीय बन गया ।
संवत १८६० का चातुर्मास प्रारम्भ होने के समय स्वामीजी बिल्कुल स्वस्थ व निरोग थे । उनकी इन्द्रियां बलवान व पुष्ट थीं । उपयोग व विवेक पूरा था । ७७ वर्ष की अवस्था में भी अपूर्व ओज था । वे स्वयं भिक्षा हेतु पधारते, धर्म - चर्चा करते, सारे दिन श्रम करते व लगता था कि वे महान अतिशयधारी आचार्य हैं । पर जो जन्मता है, वह निश्चित रूप से मरता है । ऐसा लगता है कि स्वामीजी के आयुष्य की स्थिति भी पूर्ण हो चुकी थी । श्रावण मास के शुक्लपक्ष के अन्तिम दिनों में उन्हें साधारण दस्तों की शिकायत रहने लगी, देह में वेदना होने लगी, फिर भी वे भिक्षार्थ स्वयं जाते, शौचार्थ गांव से दूर जाते, शिष्यों को पढ़ाते, लेखन कार्य करते व सारे आवश्यक कार्य स्वयं करते । भादवा के कृष्ण पक्ष में अस्वस्थता बनी रही, पर पर्युषण एवं संवत्सरी तक आचार्य भिक्षु प्रातःकालमध्याह्न व सायंकाल प्रवचन दिलाते रहे, व धार्मिक उत्साह बढ़ाते रहे । भादवा शुक्ला चतुर्थी को स्वामीजी को अपने शरीर में शिथिलता मालूम हुई व जल्दी आयुष्य की पूर्णता का आभास हुआ तो उन्होंने अपने परम विनीत शिष्य मुनि खेतसीजी को बुलाकर उनकी विनय भक्ति की प्रशंसा करते अपने साधुत्व में उनके सहयोग के लिए कृतज्ञ भाव प्रकट किया। दूसरे दिन उन्होंने सब साधुओं को बुलाकर मुनि भारमलजी की आज्ञापालन करने, शुद्ध साध्वाचार में रत रहने, अनाचारियों से दूर रहने, परस्पर प्रेम और प्रीतिभाव से रहने आदि के बारे में हित शिक्षा दी । अकस्मात साधुओं को ऐसी अन्तिम शिक्षा की बातें सुनकर आश्चर्य हुआ, पर उन्होंने स्वामीजी की शिक्षाएं शिरोधार्य कीं । अब तो प्रतिदिन शिक्षाओं का क्रम -सा बन गया। संवत्सरी के बाद आचार्य भिक्षु ने सब साधुओं को बुलाकर कहा, 'मेरा शरीर शिथिल पड़ रहा है, लगता है परभव जाने का समय आ गया, पर मुझे इसकी तनिक भी चिन्ता नहीं है । मेरे हृदय में अतुल आनंद है, पूर्ण चित्त समाधि है । मैंने अनेक भव्य जीवों को सभ्यवत्व प्रदान की, व्रती बनाया, दीक्षित किया, आगम वाणी का प्रचार किया, तुम सब लोग भी निर्मल चित्त होकर भगवदवाणी का आराधन करना व शुद्ध संयम का पालन करना। पंच महाव्रत, तीन गुप्ति, पंच समिति का अखंड अनुपालन करना। ममता, मूर्च्छा, संग परिचय, प्रमाद, सुखसुविधा, पौद्गलिक आसक्ति से दूर रहना । ऐसा करोगे तो तुम सचमुच सिद्धि
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