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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
तत्र किया प्रदेशो देशपरिस्माक्षणों का स्वास् ।
भावः शक्तिविशेषस्तत्परिणामोऽथ वा निरंशांशैः ॥१३४॥ अर्थ-उन दोनों शक्तियों में प्रदेश अथवा देश का परिस्पन्द (हलन-चलन) क्रिया कहलाती है और शेष विशेष (गुण) भाव कहलाता है। उसका परिणमन निरंश-अंशों ( अविभाग प्रतिच्छेदों) द्वारा होता है।
यतरे प्रदेशभागास्ततरे द्रव्यस्य पर्याया नाम्ना ।
यतरे च विशेषांशास्ततरे गुणपर्यया भवन्त्येव ।। १३५ ।। अर्थ-जितने भी प्रदेशांश हैं वे द्रव्य पर्याय कहे जाते हैं और जितने गुणांश हैं वे गुणपर्याय कहे जाते हैं।
भावार्थ-प्रदेशवस्व गण के जितने निरंश प्रदेश उनमें से प्रत्येक को द्रव्यपर्याय कहते हैं तथा प्रदेशवत्व गण के निमित्त से जो द्रव्य के समस्त प्रदेशों में आकारान्तर होता रहता है उसे भी द्रव्यपर्याय अ हैं और बाकी के गुणों के अंशों को और उनमें जो तरतम रूप से परिणमन होता है उसे गुणपर्याय अथवा अर्थपर्याय कहते हैं।
उपसंहार तत एव यदुक्तचरं व्युच्छेदादित्रयं गुणानां हि ।
अनवद्यमिदं सर्व प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धत्वात् ॥ १३६॥ अर्थ-इसलिए पहले जो गुणों में उत्पाद-व्यय-धौव्य बतलाया गया है, वह सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध होने से निर्दोष है।
नोट-यहाँ तक गुर्गों को नित्यानित्यात्मक सिद्ध किया । अब गुणों के नामान्तर बतलाकर प्रत्येक को निरुक्तिअर्थ करके समझाते हैं।
गुणों के नामान्तरों का कथन १३७ से १५८ तक अथ चैतल्लक्षणमिह वाच्यं वाक्यान्तरप्रवेशेन ।
आत्मा यथा चिदात्मा ज्ञानात्मा वा स एव चैकार्थः ॥ १३७ ।। अर्थ-अब गुणों का लक्षण वाक्यान्तर (दूसरी रीति ) द्वारा कहते हैं। जिस प्रकार आत्मा, चिदात्मा अथवा ज्ञानात्मा ये सब एक अर्थ को प्रगट करते हैं, उसी प्रकार वह वाक्यान्तर कथन भी एकार्थक है अर्थात् उसी अर्थ को व्यक्त करता है जिसको कि पहले कथन कर आये हैं।
तवाक्यान्तरमेतद्यथा गुणा: सहभुवोऽपि चान्वयिनः । अर्थाच्चैकार्थत्त्वादर्थादेकार्थवाचकाः
सर्वे || १३८ ॥ अर्थ-वह वाक्यान्तर इस प्रकार है-गुण, सहभावी, अन्वयी इन सबका एक ही अर्थ है अर्थात् उपर्युक्त तीनों ही शब्द गुण रूप अर्थ के वाचक हैं।
भावार्थ-बहुववन में गुणा:, सहभुवः , अन्वयिनः, अर्थाः कहते हैं और एक वचन में गुण, सहभ, अन्वयिनू और अर्थ कहते हैं। अब इनका क्रम से निरुक्ति अर्थ सहित निरूपण करते हैं:
___ 'सहभू' का निरूपण १३९ से १४१ तक सह सार्धं च समं वा तत्र भवन्तीति सहभुवः प्रोक्ताः ।
अयमर्थो युगपत्ते सन्ति न पर्यायवकमात्मानः ॥ १३९॥ अर्थ-सह, सार्धं और सम इन तीनों का एक ही साथ रूप अर्थ है।गुण सभी साथ-साथ रहते हैं। इसलिये वे सहभावी कहे गये हैं। इसका यह अर्थ है कि सभी गुण एक साथ रहते हैं। पर्याय के समान कम-क्रम से नहीं होते हैं।