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२) गणष प्रमोद:- जो प्राणी सेवाभावी दानी ज्ञानी माता पिता भाई बहिन घर मुखिया समाज नेता
राज अधिकारियों का सन्मान करता है । वो ही अपनी आत्मा को उन्नत बना सकता है । मुक्ति पा सकता है।
३) क्लिष्टेष जीवेषु कृपा परत्व:- जो प्राणी दुग्नी दरिद्रों अंत्रों, लुले लंगडे अनाथ गरीब भाईयों को
अपनी भुजा अपना हृदय समझकर उनकी अपने तन, मन, धन से रक्षा करता है । वो ही संसार स्वर्ग मोक्ष मुख पा सकता है।
मध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ सदा ममात्मा बुध धातु देव:- जो दुष्ट प्राणी हमारी मेवाओं का बदला दानवता म देते है । हमारा धन प्राण स्त्री संपदा छीनना चाहते है, नष्ट करना चाहते हैं नो तुम अपनी रक्षा तो करों। परन्तु तुम भी सामने जैसा दुष्ट बनकर प्राण हरण, धर्म स्थान नष्ट करना, आग लगाना जैसे पाप कायं मत करो । आम के वृक्ष से ज्ञान तो प्राप्त करो 1 पत्थर मारने वाले को भी फल देता है।
आत्मरस पान आत्म ध्यानः- स्त्री पुत्र धन संपदा राज वैभव मित्र राज को संसार में फसाने वाला समझकर सब का त्याग करके बाण प्रस्थाश्रम ग्रहण कर त्यागी बन निरजन बन पर्वत चोटी पर्वत गुफा, वृक्षों की कोटर में आत्म ध्यान आत्म समाधि लगाकर आत्म स्वरूप में एकाग्र हो जाता है । वोही आत्मा नर से नारायण बनकर सिद्ध लोक में जाकर आत्मा का अनंत दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य का सुख भोगता है । यही अंतिम महावीर संदेश है । शुभं ता. १-६-१९६८
-: प्रकाशक के उद्गार :भगवान से नम्र प्रार्थना [भजन नं. ॥ १ ॥]
कैसे पहुंचु तेरे द्वार ।। टेक ॥
भवसागर में भटक रहा हूं-छाम रहा अंधियार। नैया डूब रही है-स्वामी दिखता नहीं किनार।
तुम ही लगा दो पार ॥१॥
पर को अपना जान रहा हूं-करता उन्ही से प्यार । निज रस की कछु खवर नहीं है ड़ब रहा मझ धार ।
__ बेडा करा तुम पार ॥ २ ॥
नरभव कठिन मिला अब सेवक कर आतम उद्धार । मोह गहल में चूका मरख-मलना पड़े संसार |
___ कर आतम उद्धार ।। ३ ॥
आत्म दुर्बलता पर पश्चात्ताप [भजन नं. ॥२॥ भन्न दुख कसे कटे हों जिनेश्वर मो को बड़ा अंदेशा है | टेक ।। नही ज्ञान काया बल इंद्री-दान देन नही पैसा है। भव सुधरन को तप बहुत तपये-यह तन तो अब ऐसा है ।।। १।।
निरा दिन आरत ध्यान रहत है-धर्म ना जानु कैसा है । विषय कषाय चाह उर मेरे लोम चखम जम जैसा है । ।। २।।
मो में लक्षण कौन तिरण को मलिन तेल पट जैसा है। आप ही तारो तो पार उतारों-मो मन में तो अभिलाषा है । ।। ३ ।।