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नई भूमिका : नए सकल्प ६ नहीं। आप मुझे आशीर्वाद दें कि मैं रोहिणी का दायित्व निभाऊं। महाभारत में पुरुषार्थ के चार प्रयोजन बताए गए हैं
अलब्धं चैव लिप्सेत, लब्धं रक्षेत् प्रयत्नतः। रक्षितं वर्धयेच्चैव, वृद्धं पात्रेषु निक्षिपेत्॥ एतच्चतुर्विधं विद्यात्, पुरुषार्थप्रयोजनम् ।
अस्य नित्यमनुष्ठान, सम्यक् कुर्यादतन्द्रितः॥ जो नहीं मिला, उसे पाने की चेष्टा करो। जो मिल गया, प्रयल के साथ उसकी रक्षा करो। जिसकी रक्षा की, या जो रक्षित है, उसे और बढ़ाओ, उतना ही मत रखो। और जो बढ़ गया, उसे पात्र में नियोजित करो। ___ संघ में जो बढ़ा है, उसे मैं पात्र में नियोजित करने का प्रयत्न करूंगा। पात्र का बड़ा महत्त्व होता है। संस्कृत कवि ने कहा है-'जल का अग्नि के साथ वैर है। अग्नि में जल डालो, बुझ जायेगी। बीच में पात्र रख दो, पानी गर्म होकर उपयोगी बन जायेगा।' लक्ष्य है अध्यात्म का विकास आपका आशीर्वाद और पथदर्शन मुझे निरंतर मिलता रहे कि मैं इस संघ की संपदा को सुरक्षित रखू, उसे बढ़ाऊं और पात्र में नियोजित भी करूं। मेरे जीवन का सदा से ही लक्ष्य रहा-अध्यात्म का विकास । मेरी धारणा है कि जिस व्यक्ति, समाज या राष्ट्र में अध्यात्म का विकास नहीं होता वहां फिर अपराध का ही विकास होता है। ऐसा आशीर्वाद दें कि अध्यात्म के क्षेत्र में अधिक से अधिक मैं स्वयं और संघ की शक्ति को भी लगा सकूँ। आपका आशीर्वाद, आपका वरदहस्त मेरे सिर पर है। जो दायित्व आपने मुझे सौंपा है, उसे चलाने में, बढ़ाने में, मेरी ऊर्जा, प्राणशक्ति और अधिक सक्रिय बने, इसी मंगलभावना और कामना के साथ।
* ५ फरवरी १६६५. आचार्य पदाभिषेक के अवसर पर दिया गया वक्तव्य।
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