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। क्रान्ति पथे
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(४) तोड़ो मृदुल वल्लकी के ये धधक उठे अन्तस्तल में फिर सिसक सिसक रोते से तार,
क्रान्ति गीतिका की झंकारदूर करो संगीत कुञ्ज से विह्वल,विकल, विवश, पागल कृत्रिम फूलों का शृङ्गार ! हो नाच उठे उन्मद संसार !
(२) भूलो कोमल, स्फीत स्नेह-स्वर भूलो क्रीड़ा का व्यापार, हृदय पटल से आज मिटा दो स्मृतियों का अभिनय-आगार!
दाप्त हो उठे उरस्थली में
आशा की ज्वाला साकार, नस नस में उद्दण्ड हो उठे नव यौवन रस का सम्वार !
भैरव शंख नाद की गूंज फिर फिर वीरोचित ललकार, मुरझाए हृदयों में फिर से उठे गगन भेदी हुङ्कार !
तोड़ो वाद्य, छोड़ दो गायन, तज दो सकरुण हाहाकार; आगे है अब युद्ध-क्षेत्र-फिर, उसके आगे-कारागार !
--भग्नदूत