Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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७. स्त्री- यह कामजन्य सुख को देने वाली होती है।
८. चक्र - यह सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों में श्रेष्ठ होता है तथा दुर्दम शत्रु पर भी विजय दिलवाने में पूर्ण समर्थ होत है।
९. छत्र- यह छत्र विशेष प्रकार की धातुओं से अलंकृत और कई तरह के चिह्नों से मंडित होता है, जो चक्रवर्ती के हाथों का स्पर्श पाकर बारह योजन लम्बा-चौड़ा हो जाता है। जिससे धूप, हवा और वर्षा से बचाव होता
है।
१०. चर्म - बारह योजन लम्बे-चौड़े छत्र के नीचे प्रात:काल शालि आदि जो बीज बोये जाते हैं, वे मध्याह्न में पककर तैयार हो जाते हैं। यह है - चर्मरत्न की विशेषता । दूसरी विशेषता यह है कि दिग्विजय के समय नदियों को पार कराने के लिए यह रत्न नौका के रूप में बन जाता है और म्लेच्छ नरेशों के द्वारा जलवृष्टि काने पर यह रत्न सेना की सुरक्षा करता है।
११. . मणि - यह रत्न वैडूर्यमय तीन कोने और छह अंश वाला होता है। यह छत्र और चर्म इन दो रत्नों के बीच स्थित होता है। चक्रवर्ती की सेना, जो बारह योजन में फैली हुई होती हैं, उस सम्पूर्ण सेना को इसका दिव्य प्रकाश प्राप्त होता है। जब चक्रवर्ती तमिस्रा गुहा और खण्डप्रपात गुहा में प्रवेश करते हैं तब हस्तीरन के सिर के दाहिनी ओर इस मणि को बांध दिया जाता है। तब बारह योजन तक तीनों दिशाओं में, दोनों पार्श्वों में इसका प्रकाश फैलता है। इस मणि को हाथ या सिर पर बांधने से देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी सभी प्रकार के उपद्रव शान्त - हो जाते हैं, रोग मिट जाते हैं। इसको सिर पर या किसी अंग- उपांग पर धारण करने से किसी भी प्रकार के शस्त्रअस्त्र का प्रभाव नहीं होता। इस रत्न को कलाई पर बांधने से यौवन स्थिर रहता है, केश और नाखून न घटते हैं और न बढ़ते हैं।
१२. कागिणी - यह रत्न आठ सौवर्णिक प्रमाण का होता है। यह चारों ओर से सम और विष नष्ट करने में पूर्ण समर्थ होता है। सूर्य, चन्द्र और अग्नि जिस अंधकार को नष्ट करने में समर्थ नहीं होते, उस तमिस्र गुहा में यह रत्न अन्धकार को नष्ट कर देता है। चक्रवर्ती इस रत्न से तमिस्र गुहा में उनपचास मण्डल बनाते हैं। एक-एक मण्डल का प्रकाश एक-एक योजन तक फैलता है। यह रत्न चक्रवर्ती में स्कन्धावार में स्थापित रहता है। इसका दिव्य प्रकाश रात को भी दिन बना देता है। इस रत्न के प्रभाव से ही चक्रवर्ती द्वितीय अर्द्ध भरत को जीतने के लिये अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ तमिस्र गुहा में प्रवेश करते हैं और इसी रत्न से चक्रवर्ती ऋषभकुट पर्वत पर अपना नाम अंकित करते हैं ।
१३. असि (खड्ग ) - संग्रामभूमि में इस रत्न की शक्ति अप्रतिहत होती है। अपनी तीक्ष्ण धार से यह रत्न शत्रुओं को नष्ट कर डालता है।
१४. दण्ड-यह रत्न-वज्रमय होता है। इसकी पाँचों लताएं रत्नमय होती हैं। शत्रुदल को नष्ट करने में समर्थ होता है। यह विषम मार्ग को सम बनाता है। चक्रवर्ती के स्कन्धावार में जहाँ कहीं भी विषमता होती है उसको यह रत्न सम करता है। चक्रवर्ती के सभी मनोरथों को पूर्ण करता है। वैताढ्य पर्वत की दोनों गुफाओं के द्वार खोलकर उत्तर भारत की ओर चक्रवर्ती को पहुँचाता है। दिगम्बरपरम्परा की दृष्टि से ऋषभाचल पर्वत पर नाम लिखने का
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