Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
प्रचीन अवध आधुनिक फैजाबाद से चार मील की दूरी पर स्थित है। विविधतीर्थकल्प के अनुसार अयोध्या बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी थी। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार साक्षात् स्वर्ग के सदृश थी। वहाँ के निवासियों का जीवन बहुत ही सुखी/समृद्ध था। भरत चक्रवर्ती
सम्राट् भरत चक्रवर्ती का जन्म विनीता नगरी में ही हुआ था। वे भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनकी बाह्य आकृति जितनी मनमोहक थी, उतना ही उनका आन्तरिक जीवन भी चित्ताकर्षक था। स्वभाव से वे करुणाशील थे, मर्यादाओं के पालक थे, प्रजावत्सल थे। राज्य-ऋद्धि का उपभोग करते हुए भी वे पुण्डरीक कमल की तरह निर्लेप थे। वे गन्धहस्ती की तरह थे। विरोधी राजारूपी हाथी एक क्षण भी उनके सामने टिक नहीं पाते थे. जो व्यक्ति मर्यादाओं का अतिक्रमण करता उसके लिये वे काल के सदृश थे। उनके राज्य में दुर्भिक्ष और महामारी का अभाव था।
एक दिन सम्राट् अपने राजदरबार में बैठा हुआ था। उस समय आयुधशाला के अधिकारी ने आकर सूचना दी कि आयुधशाला में चक्ररत्न पैदा हुआ है। आवश्यनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि, त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित ५ और चउप्पन्नमहापुरिसचरियं के अनुसार राजसभा में यमक और शमक बहुत ही शीघ्रता से प्रवेश करते हैं । यमक सुभट ने नमस्कार कर निवेदन किया कि भगवान् ऋषभदेव को एक हजार वर्ष की साधना के बाद केवलज्ञान की उपलब्धि हुई है। वे पुरिमताल नगर के बाहर शकटानन्द उद्यान में विराजित हैं । उसी समय शमक नामक सुभट ने कहा-स्वामी ! आयुधशाला में चक्ररत्न पैदा हुआ है, वह आपकी दिग्विजय का सूचक है। आप चलकर उसकी अर्चना करें। दिगम्बरपरम्परा के आचार्य जिनसेन ने उपर्युक्त दो सूचनाओं के अतिरिक्त तृतीय, पुत्र की सूचना का भी उल्लेख किया है। ये सभी सूचनाएं एक साथ मिलने से भरत एक क्षण असमंजस में पड़ गये। वे सोचने लगे कि मुझे प्रथम कौनसा कार्य करना चाहिये? पहले चक्ररत्न की अर्चना करनी चाहिये या पत्रोत्सव मनाना चाहिये या प्रभु की उपासना करनी चाहिये? दुसरे ही क्षण उनकी प्रत्युत्पन्न मेधा ने उत्तर दिया कि केवलज्ञान का उत्पन्न होना धर्मसाधना का फल है, पत्र उत्पन्न होना काम का फल है और देदीप्यमान चक्र का उत्पन्न होना अर्थ का फल है। * इन तीन पुरुषार्थों में प्रथम पुरुषार्थ धर्म है, इसलिये मुझे सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव की उपासना करनी चाहिये। चक्ररत्न और पुत्ररत्न तो इसी जीवन को सुखी बनाता है पर भगवान् का दर्शन तो इस लोक और परलोक दोनों को ही सुखी बनाने वाला है। अतः मुझे सर्वप्रथम उन्ही के दर्शन करना है। प्रस्तुत आगम में केवल चक्ररत्न का ही
|
१. कनिंघम, ऐंसियंट ज्योग्राफी ऑफ इंडिया, प्र.३४१ २. विविधतीर्थकल्प, अध्याय ३४ ३. आवश्यकनियुक्ति ३४२ ४. आवश्यकचूर्णि, १८१ ५. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र १।३।५११-५१३
चउपनमहापुरिसचरियं, शीलाङ्क
महापुराण २४ । २।५७३ ८. (क) त्रिषष्टिशलाकापुरुष च.१।३।५१४
(ख) महापुराण २४ । २।५७३
महापुराण २४।६।५७३ १०. महापुराण २४।९।५७३
[३६]