Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
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प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३२५ कर्तव्यम्-न वर्णनीयम् त्याज्यम् अवक्रक्षेत्रवर्तित्वात् लम्बभागश्च न भरतवैताढ व्यवदित्याह(विजयविक्खंभसरिसे) विजयविष्कम्भसदृशः-विनयस्य-कच्छादिरूपस्य यो विष्कम्भःविस्तारः किश्चिन्यूनत्रयोदशाधिक द्वाविंशतिशतयोजनरूपस्तेन सदृश:-तुल्यः (आयामेणं) आयामेन-दैर्येण अयम्भावः-कच्छादिविजयस्य यो विष्षम्भभागः सोऽस्य वैताढयस्यास्य यामभाग इति, (विक्खंभो) विष्कम्भः-विस्तारः (उच्चत्त) उच्चत्वम् (उज्वेह) उद्वेधःभूमिप्रवेशश्चैते (तहेव) तथैव-भरतवैताढयवदेव बोध्याः , तत्र-विष्कम्भः पञ्चाशद्योजनात्मकः, उच्चत्वं पञ्चविंशतियोजनरूपम् उद्वेधश्च-पञ्चविंशतिक्रोशलक्षणो भरतवैताढयस्य यथा (तहेव) तथैव अस्य वैताढयस्यापि, (च) च-पुन: (विज्जाहरआभिओगसेढीओ) विद्याधराऽऽभियोग्यश्रेण्यौ-विद्याधराणामाभियोग्यानां च श्रेण्यो तत्र-विद्याधरश्रेण्यौ प्रथमदशयोजनानन्तरं (तहेव) तथैव भरतवर्षवर्तिवैताढयवदेव बोध्ये (णवरं) नवरं केवलम विशेषोऽयम् जीवा 'धणुपुटुंच' धनुष्पृष्ठ ये तीनों 'ण कायव्वं' न कहे अवक्रक्षेत्रवर्ति होने से पूर्वोक्त तीनों अवक्तव्य है । इस का दीर्घभाग भरत एवं वैताढय के सदृश नहीं है। 'विजयविक्खंभसरिसे' कच्छादि विजय का जो विस्तार अर्थात् कुछ कम बावीससो तेरह २२१३ योजन २२५ उसके समान 'आयामेणं' दीर्घता से इस कथन का भाव यह है की कच्छादि विजय का जो विष्कम्भ भाग है वह इस वैताढय का आयाम भाग अर्थात् दीर्घ भाग है 'विक्खंभो' विष्कंभ-विस्तार 'उच्चत्तं' उच्चत्व 'उव्वेहो' उद्वेध भूमि के अन्तर्गत भाग ये सब 'तहेव' भरत एवं वैताढय के समानही समझलेवें, उसमें विष्कंभ पचास योजनात्मक एवं उच्चत्व पचीस योजनात्मक एवं उद्धेध पचीस कोशात्मक भरत वैताढय का जैसा कहा है 'तहेव' उसी प्रकार इस वैताढय पर्वत का भी समझना चाहिए' 'च' और 'विजोहर आभिओगसेढीओ' विद्याधर एवं आभियोग्य देवों की श्रेणी उसी प्रकार कही है अर्थात् विद्याधरों की श्रेणी प्रथम दश योजन के पुढेच' धनुष्ट मात्र ‘ण कायव्वं' न ४ा अपक्षेत्रात पाथी पूर्वात ४डेपाना नथी. तन ail माग भरत भने वैतादयना २वा नथी 'विजयविक्खंभसरिसे કચ્છાદિ વિજયને જે વિસ્તાર અર્થાતુ કંઇક ઓછો બાવીસ સે તેર ૨૧૧૩ જનરૂપ तेनी समान 'आयामेग' माथी छे. २॥ ४थन। माप से छे -२ वियनारे वि०४ मा छे. ते ॥ वैतादयने। मायाम मा मेटले समाज मा छे. 'विक्खंभे विस्तार 'उच्चत्तं' या 'उव्वेहो' उद्वेष पति भीननी मरन। लाम से मधु तहेव' ભરત અને વૈતાઢય પર્વતની સરખા જ સમજી લેવા. તેમાં વિષ્ક ૫૦ પચાસ યોજનામક અને ઉંચાઈ પચીસ જનાત્મક તથા ઉપ પચ્ચીસ કેશાત્મક (પચીસ ગાઉ જેટલે) सरत वैतादयन र प्रमाणे डेस छ. 'तहेव' से प्रभारी I वैतादय पतन पy सभन य. 'च' भने 'विज्जाहरआभिओगसेढीओ' विद्याधर अने मालियोग्य
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