Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 728
________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेक निगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७३९ safe कृत्वा 'ओ' प्रयतः - यथा स्थानमुदात्तादि स्वरोच्चारणेषु प्रयत्नवान् सन् 'अट्टस य विसुद्भगंथजुत्तेर्हि अष्टशतविशुद्ध ग्रन्थयुक्तैः अष्टोत्तरशतप्रमाणै विशुद्धेन ग्रन्थेन युक्तैः 'महावित्तर्हि ' महावृत्तेर्हि' महावृत्तेः महाकाव्यैः यद्वा महाचरित्रैः 'अपुणरुत्तर्हि' अपुनरुक्तैः 'अत्थ जुत्तेर्हि' अर्थयुक्तैः, चमत्कारिव्यङ्गयुक्तः, 'संथुणई' संस्तौति तस्य संस्तवनं करोति 'संधुणिसा' संस्तुत्य 'वामं जाणं अंचेइ' वामं जानुम् अञ्चति, उत्थापयति 'अचित्ता जाव ' अश्वित्वा, उत्थाप्य यावत्करणात् 'दाहिणं जाणं धरणिअलंसि निवाडेइ' दक्षिणं जानुं धरणीतले निपातयति, स्थापयति इति ग्राह्यत् ' करतलपरिहियं मत्थर अंजलि कद एवं वयासी' करतलपरिगृहीतं मस्तके अञ्चलिं कृत्वा एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् यदवादीतदाह 'णमोत्थते सिद्ध बुद्धं इत्यादि 'णमोत्थुते सिद्धबुद्धनीरयसमणसामाहियए मत्तसमजोगि सलगत्तणणिव्भयणीरागदोसणिम्ममणि संगणीसल्लमाणमूरण गुणरयण सीलसागर मतमप्पमेय भवि धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी णमोत्थते अरहओत्ति कट्टु एवं वंदइ णमंसई' हे सिद्ध 'हेवुद्ध' ज्ञानतत्व 'ते तुभ्यं नमोऽस्तु अत्र सर्वाणिपदानि सम्बोधने बोध्यानि बनाकर और उसे मस्तक के ऊपर करके १०८ विशुद्ध पाठों से युक्त ऐसे महाकाव्यों से जो कि अर्थ युक्त थे चमत्कारिक व्यङ्गकों से युक्त थे एवं अपुनरुक्त थे स्तुति की 'संधुणित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचित्ता जाव करयल परिग्गहियं मत्थए अंजलि कह एवं व्यासी' स्तुति करके फिर उसने अपनी वायी जानुको ऊंचा किया और ऊंचा करके यावत् दोनों हाथ जोडकर मस्तक पर उन्हें अंजलिरूप में करके इस प्रकार से उसने प्रभुकी स्तुति की यहां यावत्पद से 'दाहिणं जाणु घरणियलंसि निवाडेइ' इस पाठका संग्रह हुआ है 'णमोत्थु ते सिद्ध बुद्धणीरयसमण सामाहि समत्त समजोगि सल्लगत्तण निव्भय णीरागदोसणिम्ममणि संगणी सल्लमाणमूरणगुणरयणसील सागर मणतमप्पमेय भविय धम्मवरचाउरंत चक्कवट्टी णमोत्थु ते अरहओ त्ति कट्टु एवं वंदइ णमंसइ' हे દશે આંગીએ જેમાં પરસ્પર સયુક્ત થયેલી છે, એવી અંજલિ મનાવીને અને તે અંજ લિને મઢ ઉપર મૂકીને ૧૦૮ વિશુદ્ધ પાઠથી યુક્ત એવા મહા કાન્ચેથી કે જેઓ અ યુક્ત હતા, ચમત્કારી જ્ગ્યાથી યુક્ત હતા. તેમજ અપુનરુક્ત હતા તેણે સ્તુતિ કરી. 'संधुणित्ता वामं जाणु अंचेइ, अंचित्ता जात्र करयल परिग्गहियं मत्थए अंजलि कट्टु एवं વચાની” સ્તુતિ કરીને પછી તેણે પોતાના વામ જાનુને ઊંચા કર્યાં. ઉંચા કરીને યાવત્ અન્ય હાથ ડીને, મસ્તક ઉપર પેાતાના હાથોની અલિ રૂપમાં અનાવીને આ પ્રમાણે स्तुति ४री. गडी यावत् पथी ' दाहिणं जाणु धरणियलयंसि निवाडेइ' या पाठ संगृ. हीत थया छे. 'णमोत्थुते सिद्ध बुद्धणीरय समणसम हिअ समत्त समजोगि सल्लगत्तण णिव्भय णीराग दोसणिम्ममणिस्संग णीसल्लमाणमूरण गुणरयसीलसागरमणंत मप्पमेय भविय धम्मवरचा उरंतचक्कवट्टी णमोत्थुते अरहओ त्ति कट्टु एवं वंदई णमंसई' जं० ९२ Jain Education International 9 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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