Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 730
________________ D% 3D प्रकाशिका टीका- पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७३ वासइ' शुश्रूपमाणो यावत्पर्युपास्ते सोऽच्युतेन्द्रः, अत्र यावत् पदात् 'नसंसमाणे तिविहाए पज्जुवासणाए' नमस्यन् त्रिविधया पर्युपासनयेति अशावशिष्टानामिन्द्राणां वक्तव्यं लाघवादाह ‘एवं जहा' इत्यादि एवं जहा अच्चुधस्स तहा जाब ईसाणस्य भाणियव्यं' एवम् उक्तविधिना याऽच्युतेन्द्रयाभिषेककृत्यं तथा यावत् ईशानेन्द्रस्थापि. अभिषेककृत्यं भणितव्यम् . अत्र यावत्पदात् प्राणतेन्द्र सनत्कुमादारभ्य ईशानेन्द्र पर्यन्तस्य ग्रहणम् शक्राभिषेकस्य सर्वत श्वरमत्वात् ‘एवं भवणयबाणमंतर मोइसिआ य वरपजपसाणा सएणं परिवारेणं पत्ते पत्तेअं अभिसिंचई' एवम् उतप्रकारेण भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्काश्चन्द्राश्च सूर्यपयवसानाः स्वकेन परिवारेण सह प्रत्येकमभिपिश्चन्ति, अभिषेकं कुर्वन्ति, अथावशिष्टशकेन्द्रस्पद से नर्मसमाणे तिविहाए पन्जुवालणाए' इस पाठका ग्रहण हुआ है। यहां जितने ये विशेषण बालक अवस्थापन ऋषभकुमार में प्रदर्शित किये हैं वे भव्य पथको छोडकर “माविनिभूलवतू' इस कथन के अनुसार यद्यपि उनमें आगे ऐसी अवस्था होनेवाली है वर्तमान में यह अवस्था नहीं हैं फिर भी उसकी अभिव्यक्ति हो चुकी है ऐसा मानकर उपचार-कर उनकी सार्थकता समझलेनी चाहिये अतः इस प्रकार के कथन में कोई विरोध नहीं है भावी पर्याय को भूत पर्याय मानकर लोकमें भी कथनव्यवहार देखा जाता है इस सूत्र में जो नमोऽ. स्तुपद दो बार प्रकट किया गया है वह पुनरुक्ति दोषावह नहीं हैं प्रत्युत लाघव प्रकट करता है क्योंकि हरि--इन्द्र ने यहां जितने विशेषण प्रयुक्त किये हैं उनकेसबके साथ हल पदका प्रयोग उसे करना इट है, क्योंकि उसके हृदय में भक्ति का प्रवाह उमड रहा है सो ऐलान करके जो दो बार ही नमोऽस्तु पदका प्रयोग उसने किया है वह लाघव के निमित सिद्ध हो जाता है यहां जो सात पधुपासना ४२वा वयो. मी यात् ५४थी 'नमसमाणे तिविहाए पज्जुवासणाए' मा पाठ સંગૃહીત થયેલ છે. અહીં જેટલાં વિશેષણો બાલક અવાપન્ન ષભકુમાર માટે પ્રદર્શિત ४२वामां आवे छे ते सय ५६ मा ४२ ८. 'भाविनिभूतवत् ॥ ४थन भु ले કે આગળ તોશ્રી એવી અવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે પણ વર્તમાનમાં આ અવસ્થા નથી છતાંએ. તેની અભિવ્યક્િત થઈ ચૂકી છે. જે વું માનીને-ઉપચાર કરીને એમની સાર્થકતા સમજી લેવી જોઈએ, એટલા માટે આ પ્રકારના કથનમાં કોઈ પણ જાતને વિરોધ નથી. ભાવી પર્યાપને ભૂત પર્યાય માનીને લેકમાં પણ કથન - વ્યવહાર જોવામાં આવે છે. આ સૂત્રમાં रे 'नमोऽस्तु' ५६ मे पार माव्यु छ तेथी म पुनरुति होष थ। छ, माम मानव નહિ, પરંતુ અહીં તે લાઘવ પ્રકટ કરે છે. કેમકે હરિ-ઇન્દ્ર અહીં જેટલાં વિશેષણો પ્રયુક્ત કર્યા છે તે બધાની સાથે એ પદનો પ્રયોગ ઈષ્ટ છે કેમકે તેના હૃદયમાં ભક્તિ प्रा6 जी २वो छे. तो न ४रीने तेशे में .२ 'नमोऽस्तु' पहने। प्रयोग ध्या છે તે લાઘવ નિમિત્તે જ કર્યો છે એવું સિદ્ધ થઈ જાય છે. અહીં જે સાત-આઠ ડગલા Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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