Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
View full book text
________________
प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशक्रकर्तव्यनिरूपणम् ६५३ सम्पूर्णो महेन्द्रध्वजवर्णको ग्राह्यः 'पुरओ पकड्डिजमाणेणं' पुरतः अग्रतः प्रकृष्यमाणेन निर्गम्यमानेन 'चउरासीए सामाणिअ जाव पडिवुडे' चतुरशीत्या सामानिकसहस्रैः परिवृतः युक्तः, अत्र यावत् 'चउहिं चउरासी हिं आयरक्खदेवसाहस्सी हिं' इत्यादि ग्राह्यम् 'सब्बिद्धीए जाव रवेग' सर्वद्वयों यावद्रवेण अत्र यावत्पदात् 'सधज्जुईए' इत्यारभ्य 'महया इद्धीए' इत्यन्तम् तथा 'महया हयणगीयवाइय' इत्यारभ्य ‘पडपडहवाइय' इत्यन्तं सर्व ग्राह्यम्, एतेषां प्रत्येकपदानां व्याख्यानम् अस्मिन्नेव वक्षस्कारे द्रष्टव्यम् 'सोहम्मस्स कप्पस्स मज्सं मज्झेणं तं दिव्वं देवद्धिं जाव उवदंसेमाणे उवदंसे माणे' सौधर्मस्य कल्पस्य मध्यं मध्येन उवदंसेमाणे २ जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उतरिल्ले णिज्जाणमग्गे तेणेव उवागच्छइ' इस प्रकार से वह शक्र उस पश्च प्रकार की सेना से परिक्षिप्त हुआ यावत् जिसके आगे २ महेन्द्र ध्वज चला जा रहा है और जो ८४ हजार सामानिक देवों से परिवृत है यावत् ८४-८४ हजार आत्मरक्षक देवों से जो घिरा हआ है अपनी पूर्ण समस्त ऋद्धि के साथ, यावत् सर्व द्युति के साथ २ गाजे वाजे पूर्वक सौधर्मकल्प के ठीक बीचोबीच से होता हुआ अपनी उस दिव्य देवर्द्धि को दिखाता दिखाता जहां सौधर्मकल्प का उत्तरदिग्वर्ती निर्याण मार्गनिकलने का-प्रास्ता था वहां पर आया यहां प्रथम यावत्पद से महेन्द्र ध्वज का वर्णनात्मक पूर्ण पाठ गृहीत हुआ है द्वितीय यावत्पद से 'चरहिं चउरासीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं' इत्यादि पाठ का ग्रहण हुआ है तृतीय यावत्पद से 'सव्वज्जुईए' इस पद से लेकर 'पडपडहवाइय' यहां तक का सब पाठ गृहीत हआ है इस पाठ के प्रत्येक पदों की व्याख्या इसी वक्षस्कार के कथन में की गई है अतः वहीं से इसे देखलेना चाहिये चतुर्थ यावत्पद से' तां दिव्यां देवद्युतिं तं दिव्यं देवानुभावं' इन पदों का ग्रहण हुआ है 'उवागच्छित्ता जोयणसय साहજેની આગળ-આગળ મહેન્દ્રવજ ચાલી રહ્યો છે અને જે ૮૪ હજાર સામાનિક દેથી પરિવૃત છે યાવિત ૮૪-૮૪ હજાર આત્મરક્ષક દેવેથી પરિવૃત છે, પિતાની પૂર્ણ, સમસ્ત અદ્ધિની સાથે, યાવત્ સર્વ ઘુતિની સાથે-સાથે-ઉત્તમ માંગલિક, વા સાથે સૌધર્મ કલ્પના ઠીક મધ્યમાં થઈને પિતાની તે દિવ્ય દેવદ્ધિને બતાવતો બતાવતો જ્યાં સૌધર્મ કલ્પને ઉત્તર દિશ્વત નિયણુ માર્ગ–નીકળવાનો માર્ગ હતું ત્યાં આજે અહીં પ્રથમ યાવત્ પદથી મહેન્દ્ર દવજને વર્ણનાત્મક પૂર્ણ પાઠ સંગૃહીત થયો છે. દ્વિતીય યાવતુ ५.थी 'चउहि चउरासीहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं' मेरे ५४ सहीत थयो छे. तृतीय यावत् ५४थी 'सव्वज्जुईए' मा ५४थी 'पडुण्डहवाइय' मडी सुधीन। ५७ स. હીત થયો છે. આ પાઠમાં આવેલા દરેકે દરેક પદની વ્યાખ્યા આ વક્ષસ્કારના કથનમાં
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org