Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 700
________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०९ इत्यादि सेवा-धर्मसत्यापनार्थं न तु वैरिनिग्रहार्थ, तत्र वैरिणामभावात् केचन वज्रपाणयः केचनशूलपाणयः प्राञ्जलिकृताः सन्तः सन्तिष्ठन्ते इति, अत्र यावत्पदात् चित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पद् हृदयाः, इति ग्राह्यम् ‘एवं विजयानुसारेण जाव' एवम् उक्त प्रहारेण अभिषेकसूत्रं विजयदेव्य देवाभिषेकसूत्रानुसारेण ज्ञातव्यम् जीवाभिगमवत् अत्र यावत्पदात् 'अप्पेगइया पंडगवणं णच्चोअगं णाइमट्टियं पविरलपप्फुसियं स्यरेणु. विणासणं दिव्वं मुरहिगंधोदकवासं वासंति अप्पेगइया निह परयं णट्टरयं भट्टरयं पसंतरयं उपसंतरयं करेंति' इति ग्राह्यम् अप्येककाः केचन देवाः पण्डकवनम्-अत्र नैरन्तर्ये द्वितीया निरन्तरं पाडकवने इत्यर्थः नात्युदकं नातिमृत्तिकं यथास्यात् तथा प्रविरल प्रस्पृष्टम् प्रकर्षण धारण करने की बात कही गइ है वह केवल सेवा धर्मको प्रकट करने के लिये ही कही गई है वैरिजन के निग्रह के निमित्त नहीं क्योंकि वहां उनका कोई वैरी ही नही था यहां यावत्पद से 'चित्तानंदिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्ष. वशविसर्पहृदयाः' इन पदों का ग्रहण हुआ है 'एवं विजयानुसारेण जाव अप्पेगइया देवा आसिअ संमजिजओचलितसित्तसुइसम्मट्ट रत्थंतरावणवीहिअं करेंति जाव गंधवद्विभूअंति' जीवाभिगम सूत्र में जिस प्रकार विजयदेव के अभिषेक प्रकरण में अभिषेक सूत्र कहा गया है, उसी तरह से यहां पर भी अभिषेक सूत्र जानना चाहिये यहां यावत्पद से 'अप्पेगइया, पंडगवणं णच्चो अगं, णाहुमटिअं, पविरलपकुसियं रयरेणुविणासणं, दिव्वं सुरहिगंधोदकवासं वासंति, अप्पेगइया नियरयं णहरयं, भट्टरथं, पसंतरयं, उवसंतरयं करेंति' इस पाठका संग्रह हुआ है इरूकी व्याख्या पहिले जैसी ही है वाक्य योजना इस प्रकार से है अपिशब्द यहां स्वीकारोक्ति के अर्थ में है 'एगइया' शब्द का अर्थ હતા. અહીં જે આ શાસ્ત્ર ધારણ કરવાની વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે તે ફક્ત સેવાધર્મને પ્રકટ કરવા માટે કહેવામાં આવી છે. વૈરીઓના ઉપશમન માટે એમણે શસ્ત્રો ધારણ કર્યા नया. ते स्थान ५२ तमना वैरीखत नहि. म.डी. यावत् ५४थी. चित्ता नंदित्ताः, प्रीतिमनसः, परमसोमवस्थिताः हर्षरशविसर्पद्घया' से पहोनु हुय ययु छ. 'एवं विजयानुसारेण जाव अप्पेगइया देवा आसिअ संमज्जिओबलित्तसित्त सुइ सम्मटु रत्थंतरावणवीहि करे ति जाव गन्धवट्टि भूअंति' वालिगम सूत्रमा २ प्रमाणे विल्य विना मनिष પ્રકરણમાં અભિષેક સૂત્ર કહેવામાં આવેલ છે, તે પ્રમાણે અહીં પણ અભિષેક સૂત્ર જાણવું જોઈએ. मही यावत् ५४थी 'अप्पेगइया पंडगवणं, णच्चोअगं, णाइमट्टिअं, पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिवं साहि गंधोदकवास वासंति, अप्पेगइया निहयरय णदुरयं, भदुरयं, पसंतरयं, उवसंतरयं करें ति' मा पाउन सक्यो छे. वाय या मा प्रमाणे छ. 'अपि' ५५४ २५ २वी४।२।तिना अथ मां प्रयुत यथे। छ. 'एगइया' शहना मा ' मेवे। थाय छे. हा ‘એ તે પંડક વનમાં સુરભિ ગટકની વર્ષા કરી. આ વર્ષથી ત્યાં અતિ કાદવ થાય Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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