Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 724
________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षरकारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वाद 'तप्पढमयाए' तत् प्रथमता-इति ग्राह्यम् 'लूहित्ता' रूक्षयित्वा शरीराणि पोख्छय ‘एवं जाव कप्परूकखगंपिक अलंकिरिअविभूसियं करेइ' एवम्-उत्तप्रकारेण यावत्कल्पवृक्षमिवअलंकृतं वस्त्रालङ्कारेण विभूषितम्-आभरणालङ्कारेण करोति, अत्र यावत्पदात् 'लुहिता सरसेणं गोलीसचंडणं झापाई अणुलिपइ अणुलिपित्ता नासानीसासवायवोज्झं चखुहरं वण्णफरिसजुले हयलालापेलवाइरेग अवलं कणखचियंतकम्मं देभसजू पलं निसावेइ निअंसाबित्ता' इति ग्राह्यम् णाम:, रुक्षयित्वा तस्य शरीराणि प्रोञ्चसरसेन रससहितेन गीशीर्थचन्दनेन गात्राणि शरीराणि, अनुलिम्पति, अनुलिप्य नापानिःश्वासातवाह्यम् तथा चक्षुहरं दर्शनीय तथा वर्णशंयुकम् लचा 'हयलालापेलवातिरेक धरलम् , तत्र हयलालाअश्वमुखलं तहत् पेलवम् कोमलम् अतिरेक प्रवलं च-अत्यन्तस्वच्छ च तथा कनकखचि. तान्तर्मकनकैः काञ्चनैः खचितम् अन्तर्भ अन्तर्भागो यस्य तथाभूगम्-एवं भूतं देवष्ययुगलम् देववस्त्रयुगलम्-परिधानोतरीयरूपं निवासथति, परिधापयति निवास्य परिधाप्य-इति बोध्यः । 'करित्ता' कृत्वा 'जाव नविहिं उबदंसे३' यावत् नाटयविधिभुपदर्शयति अत्र 'लूहेत्ता एवं जाब कप्परुखगपिक अलंकिय विभूसिरं करेह' शरीर को प्रोग्छन करके फिर उसने प्रभु के मुख हस्त आदि अवयवों को पोंछ। यहां यावत् शब्द से 'तप्पढयाए' पद का ग्रहण हुआ है पोछकर उसने फिर प्रभुको वस्त्र और अलंकारों से विभूषित किया अतःप्रभुउस समय साक्षात् कल्पवृक्ष के जैसे प्रतीत होने लगे यहां यावत् शब्द से-'लूहिता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिम्पइ, अणुलिंपिता नासानीसासधाराबोझं चश्वुहर वष्णफरिसजुत्तं, हयलाला. पेलवाइरेगधवलं झणम खचियंत कम्नं देवदूसजुअलं निसावे नियंसावित्ता'७ इस पाठका संग्रह हुआ है-इसकी व्याख्या स्पष्ट है 'करित्ता जाव णविहिं उवदेसेइ, उदसिता अच्छेहि सण्हेहि स्थगामएहिं अच्छरसातण्डुलेहिं भगवओ समणस्स पुरओ अह मंगलगे आलिहइ वस्त्रालंकारों से प्रभुका अलंकृत करके ५६मस, सुभार, सुपित पायी ७ यु 'लूदेन्ता एवं जाव कापखगपित्व अलंकिय विभूसि करेइ' शरीर ०७ ४रीले पछी सुना भु, स्त, वगेरे भयवानुन ४यु. २५ही यावत् यी तढिमयाए' ५४ अडए युयु छ પ્રેછન કરીને પછી તેણે પ્રભુને વસ્ત્ર અને અલંકારોથી વિભૂષિત કર્યા. એથી પ્રભુ તે मते साक्षात् ४६५ वृक्ष २ दावा भांडया. डी. यावत् २.५४थी 'लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणं गायःई अगुलिम्पइ, अगुलिंपित्ता नासानीसासवायोज्य चक्खुहरवण्णफरिसजुत्तं, हयलाला पेलवाइरेगधवलं कणगखचिरंत कम्मं देवदुमजु पलं निसावेइ निसावेइत्ता' मा ५४ साडीत यो छ. शनी व्याच्या २५५८ , करिता जाव णट्टविहिं उबदसेह, उवदंसित्ता अच्छेहि सण्हेहि रयणामणहिं अच्छरसातण्डुलेहिं भगवओ समणस परओ अट्ठ मंगलगे आलिहा' पाथी प्रभुने मत ४ ५छी तो यावत् नाट्यविधिनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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