Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad

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Page 654
________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः स. ६ यानादि निष्पन्ननन्तरीयशक्रकर्तव्यनिरूणम् ६५५ पुनरसंख्येय द्वीपसमद्रातिक्रमेण तत्रागमन मितिचेत् उच्यते-निर्याणमार्गस्य असंख्यातस्य द्वीपस्य वा समुद्रस्य वा उपरिस्थितत्वेन संभाव्यमानखात् तत्रावतरणम्-ततश्च नन्दीश्वराभिगमनेऽसंख्यातद्वीपसमुद्रातिक्रमणं युक्तिमदेवेति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य अत्र दृष्टान्ताय सूत्रम् ‘एवं जा चेव सूरियाभस्स उत्तव्ययात्ति' एवम् उक्तरीत्या यव सूर्याभस्य वक्तव्यता यथा सूर्याभः सौधर्मकल्पादवतीर्णस्तथाऽयमपीत्यर्थः 'णवर सक्काधिकारो वत्तव्वोत्ति जाव तं दिव्यं देविद्धिं जाव दिव्वं जाणविमाणपडिसाहरमाणे पडिसाहरमाणे' नवरम् अत्रायं विशेषः शक्राधिकारो वक्तव्यः, सौधर्मेन्द्रनाम्ना सर्व वाच्यम् इति यावत तां दिव्यां देवद्धि यावत् दिव्यं यानविमानं प्रतिसंहरन् प्रतिसंहरन् नवरमत्र प्रथमयावच्छब्दो दृष्टान्तविषयीकृत सूर्याभाधिकारस्य अवधिसूचनार्थः, सचावधिर्विमानप्रतिसंहरणपर्यन्तो वक्तव्यः द्वितीय यावजाना युक्तिमतू था फिर वहां जाने के लिये इसे इन तिर्यगलोकवर्ती असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करने की क्या आवश्यकता थी ? तो इसका समाधान य. ही है कि सौधर्म स्वर्ग से उतर कर नन्दीश्वर द्वीप में जानेका मार्ग इन्हीं असं. ख्यात द्वीप समुद्रों के उपर से ही गया हुवा प्रतीत होता है इसलिये इसे वहाँ से जाना पडा है अतः ऐसा यह कथन युक्ति युक्त ही है । 'उवागच्छित्ता' वहां आक रके 'एवं जा चेव सूरियाभस्स वत्तव्यया णवरं सक्काहिगारोवत्तव्यो इति जाव तं दिव्यं देविद्धिं जाव दिव्वं जाणविमाणं पडिसाहरमाणे २ जाव जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्नणनगरे जेणेव भगवओ तित्थयरस्स भवणे तेणेव उवागच्छ।' इसने फिर क्या किया इत्यादि सब विषय जानने के लिये सूर्याभ देवकी वक्तव्यता को देखना चाहिये यह वक्तव्यता पीछे कही जा चुकी है तात्पर्य यही है कि सूर्याभदेव जिस प्रकार सौधर्मकल्प से अवतीर्ण हुआ उसी तरह से यह યુક્તિમત હતું પછી તે ત્યાં જવા માટે તેને તિર્યશ્લોકવતી અસંખ્યાત દ્વીપસમુદ્રોને પાર કરવાની શી આવશ્યક્તા હર્તા ? તો આ શંકાનું સમાધાન આ છે કે સૌધર્મ સ્વર્ગમાંથી ઉતરીને નન્દીશ્વર દ્વીપમાં જવાનો માર્ગ એજ અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રો ઉપર થઈને જ છે. એથી જ તે શકને ત્યાં થઈને જ જવું પડયું હતું એટલા માટે આ કથન યુક્તિ યુક્ત ४ छे. 'उवागच्छिता' त्यो ७२ एवं जा चेव सूरियाभस्स वत्तव्यया णवर सक्काहिगारो वत्तव्यो इति जाव तं दिव्वं देविद्धि जाव दिव्व जाणविमाणं पडिसाहरमाणे २ जाव जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणनगरे जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छ।' તેણે શું કર્યું વગેરે જાણવા માટે સૂર્યાભવની વક્તવ્યતાને જોઈ લેવી જોઈએ. આ વક્તવ્યતા પહેલા કહેવામાં આવી છે. તાપયે આ પ્રમાણે છે કે સૂર્યાભદેવ જે પ્રમાણે સૌધર્મક૫માંથી અવતીર્ણ થયો. તેજ પ્રમાણે આ શક પણ ત્યાંથી અવતીર્ણ થયે. આ અધિકારમાં તે અધિકાર કરતાં તફાવત આટલે જ છે કે ત્યાં સૂર્યાભદેવને અધિકાર છે, Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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